Tuesday 10 May 2011

सुख की छाँव कहाँ



दुनिया पीडा का प्रवास है सुख की छाँव कहाँ,
महल राजपथ सोना चाँदी अपना गाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

क्षणजीवी बैराग न मन को कभी तनिक भाया
रोम-रोम में समा गयी मृग की कंचन काया
अपना कौन पराये कितने आस - पास बैठे
मन माफ़िक तस्वीर बनाने को मन में ऐंठे
अपने पाँव थके बेसुध हैं, अभी पडाव कहां ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

संयम शील साधना सूनी कुटिया के बन्दी
अपने शिव को ढूंढ रहा अपने मन का नन्दी
अभी समय है चेत उठो उपदेश घनेरे है
कैसे समझूँ समझ सभी मुटठी मे तेरे है
चौपड सजी निहार रहा हूँ, अपना दाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

प्रथा व्यथा बन गयी कथा कैसे खोलूँ अपनी
मुँह में लगी लगाम निगाहे सबकी तनी-तनी
सुनते थे प्रवास का सुख सम्मोहन होता है
रंग बिरंगी दुनिया सुख संजीवन देता है
तपती रेत बूँद को तरसे सीपी, नाव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

अभी सबेरा हुआ नही संझा भी घिर आयी
चार कदम दौडे सपाट में फ़िर गहरी खाई
चमचम गोटे सजे हाथ के, इतने पास नही
फ़िर भी उचक रहा हूँ मरियल मरती आस नही
जेठ तप रहा सिर के ऊपर, बट की छाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

अरे प्राण के मीत न तुमको अब भी भूला हूँ
पता नही क्यों बना हुआ टहनी का झूला हूँ
सन्देहों की घिरी घटाये निष्ठा रूठ गयी
काँधे की पाथेय पुटकिया गिरकर छूट गयी
घना हुआ अँधियार, बनाऊँ अपना ठाँव कहां
अपना गाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

.......................................................... ओम शंकर त्रिपाठी