Sunday 4 September 2011

बोलो स्वदेश के स्वाभिमान




बोलो स्वदेश के स्वाभिमान

नगराज हिमालय कटा, सिन्धु की धार बँटी, कश्मीर लुटा
कैलास, मानसर, हिंगुलाज तीरथ का पावन तीर बँटा
संगीत आरती का, पूजा की शंख ध्वनि खो गयी कहाँ
माँ ढाकेश्वरी पूछने आती है हमसे हर रोज यहाँ
क्यों हुआ नहीं विक्षुब्द सिन्धु, क्यों मौन अभी तक आसमान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [१]

अँधियारे में भारत भटका, लटकी क्यों तौंक गुलामी की
क्यों स्वाभिमान को भूल हाथ, आदत लग गयी सलामी की
क्यों विश्व गुरु का सिंहासन, आसन बन गया खिलौनों का
मृगराज भूल शार्दूल भाव, क्यों दास हो गया छौनों का
पहले जैसा क्यों रहा नहीं पूरब का सूरज भासमान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [२]

भाषा भावों की तरी, परी कल्पना लोक की ज्योतिमान
क्यों भटक रही पतवार-हीन, टूटे उल्का जैसी निदान
यह विश्वंभरा धरा क्यों ताका करती बैठे शून्य गगन
क्यों दुविधाग्रस्त जवानी है, आचरणहीनता मस्त मगन
उजडे हाटों से लौट-लौट क्यों आते हैं रोते किसान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [३]

क्यों लोकतंत्र का जामा मक्कारों की करनी ढकता है
सच कहने वालों को समाज क्यो समझ रहा "यह बकता है"
क्यों पूरब का भविष्य, पश्चिम के महलों मे तय होता है
पुरुषार्थ विभ्रमित, कुण्ठाएँ नाहक क्यों सिर पर ढोता है
क्यों बदला जाता है सुविधाओं के लिये सदन में संविधान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [४]

शिक्षा जीवन का संस्कार, क्यों हुई पेट की परिभाषा
शिक्षित कहलाता वही, बोलता जो केवल धन की भाषा
परिवार हुए बाजार, स्वार्थ पर पलते हैं रिश्ते-नाते
दौलत के लिये पराए भी अपनों से बढकर हो जाते
क्यों दिया जलाती नही साँझ, तन्द्रा मे रहता क्यों विहान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [५]

क्यों धर्म-कर्म, सेवा-सुधार, पूजा-प्रवचन व्यापार हुए
शंकाओं में सहमे-सहमे, चूल्हे-चौके घर-द्वार हुए
बेशक स्वतंत्र हो गया देश, पर जन-जीवन अब भी गुलाम
प्रतिभा बेचारी भटक रही, करती फ़िरती सबको सलाम
क्यों श्रीमन्तों के कदम छोड जाते गहरे काले निशान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [६]

मुँह फ़ेर रही प्रतिभा हताश क्यों अपने ही घर आँगन से
क्यों रूठ गयी है पुरवाई, अपने मन-भावन सावन से
अब क्यों आदर्शों के चेहरे सीमित रह गए प्रबन्धों में
क्यों सदाचार की परिभाषा सिमटी है सिर्फ़ निबन्धों मे
क्यों राजनीति में उभर रहे हर रोज नए नारे, निजाम।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [७]

भारत भारती खोजता है, कवि खोज रहा ऊँची दुकान
पकवान भले ही सीठा हो पर दुनिया मे बढ रही शान
यह थोथा जीवन, अपनो का आदर्श कभी भी रहा नहीं
बस इसीलिये वह लहरों पर तिर, मुर्दों जैसा बहा नही
क्या उखड बहेगा युग-युग से लहराता भारत का निशान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [८]

यह सब कुछ क्यों हुआ, जब कभी सोंचा अपने चिन्तन से
हम भूल गये अपना स्वरूप, फ़िर छोडा साथ चिरन्तन ने
चेतना हुई बेजार कलेवर की पूजा जब शुरू हुई
दासी का मान बढा इतना, वह सारे घर की गुरू हुई
बस इसीलिये सब उलट-पुलट हो गया विधाता का विधान।
समझो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [९]

भारत कर्ता की जन्मभूमि कर्मठता का यह सामगान
सागर की छाती चीर लिखा करता उस पर अपने निशान
हों पूत कपूत भले युग के, पर कोख धरा की बाँझ नही
अम्बर पर बदली घिरी भले, पर अभी दिवस है साँझ नही
सूरज बरसायेगा रोली अक्षत कह "भारत चिर महान"।
जागो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [१०]

भारत फ़िर से भा रत होगा दुनिया को राह दिखायेगा
धन केवल साधन, साध्य नही, जन-जन को पुनः सिखायेगा
जो भटक रहे अँधियारे मे, जी रहे जुगुनुओं के बल पर
उस बियावान से उन सबको लाना है फ़िर से समतल पर
तब फ़िर से दुनिया गायेगी "भारत महान भारत महान"।
जय हो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [११]

............................................. ओमशंकर