Wednesday 14 March 2012

मैं



मैं अन्तरतम की आशा हूँ, मन की उद्दाम पिपासा हूँ
जो सदा जागती रहती है, ऐसी उर की अभिलाषा हूँ।।

मैंने करवट ली तो मानो, हिल उठे क्षितिज के ओर-छोर
मैं सोया तो जड हुआ विश्व, निर्मित फ़िर-फ़िर विस्मित विभोर
मैने यम के दरवाजे पर दस्तक देकर ललकारा है
मैंने सर्जन को प्रलय-पाथ पढने के लिये पुकारा है
मैं हँसा और पी गया गरल, मैं शुद्ध प्रेम परिभाषा हूँ
मैं अन्तरतम की आशा हूँ, मन की उद्दाम पिपासा हूँ।।१।।

मैं शान्ति-पाठ युग के इति का, मैं प्रणव-घोष अथ का असीम
मैं सृजन-प्रलय के मध्य सेतु, हूँ पौरुष का विग्रह ससीम
बैखरी भावनाओं की मैं, सात्वती सदा विश्वासों की
मैं सदियों का आकलन बिन्दु, ऊर्जा हूँ मैं निश्वासों की
पर परिवेशों में मैं जब-तब लगता है घोर निराशा हूँ
मैं अन्तरतम की आशा हूँ, मन की उद्दाम पिपासा हूँ।।२।।

मैं हूँ अनादि, मैं हूँ अनन्त, मैं मध्यदिन का प्रखर सूर्य
मैं हिम-नग का उत्तुंग शिखर, उत्ताल उदधि का प्रबल तूर्य
दिग्व्याप्त पवन उन्चास और मैं हूँ अन्तरिक्ष का कृशानु
मैं माटी की सद्गन्ध और रस में बसता बन तरल प्राण
पर आत्म-बोध से रहित स्वयं मैं ही मजबूर हताशा हूँ
मैं अन्तरतम की आशा हूँ, मन की उद्दाम पिपासा हूँ।।३।।

मैं स्रष्टा का उत्कृष्ट सृजन पालन कर्ता का सहयोगी
मैं हूँ विध्वंस कपाली का, हूँ प्रलय का अनुयोगी
मैं ही इतिहास रचा करता, बूमिति के बिन्दु हमारे हैं
अटके भटके पथ-भेदों के मैंने संबन्ध सुधारे है
पर चला और पथ भूल गया मैं क्षिप्त चित्त की भाषा हूँ
मैं अन्तरतम की आशा हूँ, मन की उद्दाम पिपासा हूँ।।४।।

जब सोया तो सपने देखे, जब जगा, सोच कर रोता हूँ
अपने इन गँदले हाथों से प्रग्या मल-मल कर धोता हूँ
छिप गया क्षितिज में सिन्धु-सूर्य मैं ठगा रह गया खडा
अपनी ही आँखों से देखा मैं अपने से हो गया बडा
हारे समस्त उपमान, अभी तक मैं प्यासा का प्यासा हूँ
मैं अन्तरतम की आशा हूँ, मन की उद्दाम पिपासा हूँ।।५।।


............................................... ओमशंकर