Tuesday, 25 December 2012

गीत मैं लिखता नहीं हूँ

गीत मैं लिखता नही हूं।
लाख कोशिश कर थका पर सामने दिखता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।

वर्जनायें हार थक कर बैठ जाती
वंचनायें मस्त मन-मन गुनगुनाती
याद डूबी साँझ झपकी ले रही है
और अपने हाथ थपकी दे रही है
ठिठकता हर ठौर, पर टिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।

पथ अभी भी हार कर आवाज देता
पर न पहले सा चपल अँदाज होता
पंथ ही पाथेय सुख दे रहा है
हर हवन में मन स्वयं होता रहा है
धार में घुलमिल गयी माटी, विरस सिकता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।

राह से हारा नहीं, युग का छला हूँ
चाह की कारा न, निर्जन में पला हूँ
नियति की चिन्ता नहीं, गति पर भरोसा
आ मिले परिणाम को किंचित न कोसा
स्वर्ण का सौदा नही, मैं भाव हूँ, बिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।

युग-प्रवर्तन की अनूठी भूमिका हूँ
सत्य-चित्रण की अनोखी तूलिका हूँ
नियति के आगे न किंचित विवश हूँ
जगत की हर रीति का अंतिम निकष हूँ
भर दिये अनगिन चषक, मैं सिन्धु हूँ, चुकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।

हो रहा जो भी उसे क्यों सह रहा हूँ
चाह कर भी क्यों नही कुछ भी कह रहा हूँ
मँजिलें अब भी बुलावा भेजती हैं
भावना पाथेय को क्यों देखती हैं
प्राण मेरे ! अब न क्यों लिखता सही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।


___________________ ओमशंकर

Sunday, 23 December 2012

शाश्वत सुकून

मैं अपने प्राणों को पीकर पलता और
समाज की लाज बचाने के लिये
राहों पर
अपना कफ़न
ओढ कर चलता हूँ।

मैं एक ऐसा बँजारा हूँ
जिसके पास
गिरह बाँधने के लिये
सूत का एक टुकडा नहीं
और इस अभागी दुनिया को
भरमाने के लिये
किसी तरह का
मुखौटा चढा मुखडा भी नहीं।

मैं एक
अलमस्त फ़कीर हूँ
जिसकी झोली में
अपनी तकदीर
और मुट्ठियों में
खुद्दारी की तासीर नजरबन्द है।

मैं इंसान का पुतला भर नहीं
रूहानी ताकत का पैगाम
और अरमानों के अमृत से
छलकता हुआ जाम हूँ।

इसके अलावा
सूखे बरगद की ठठरी में
उलटे लटके चमगादडों को
जगाते, भगाते रहने वाला
जुनून
और भीतर ही भीतर
मस्त रहने वाला
शाश्वर सुकून हूँ।।


------------------ ओमशंकर