Wednesday 1 May 2013

मैं विद्रोही

मैं धारा के विपरीत चला विद्रोही हूँ
फ़िर भी अपनी मति-कृति का सन्तत मोही हूँ।।

अद्भुत अशान्त भावों का उठा बवन्डर हूँ
मैं धरती को धारे कठोरतम मन्दर हूँ
निभ्रान्त जगत की मैं अदम्य तरुणाई हूँ
निर्धूम वह्नि की या प्रदीप्त परछाईं हूँ।।१।।

मैं हूँ सरिता का स्रोत सरल पथ की सीमा
संघर्षण का उद्योत शक्ति का अथ भीमा
मैं अन्तरिक्ष की ज्वाला का आमंत्रण हूँ
धरती की ज्वालामुखियों का अभिमंत्रण हूँ।।२।।

मैं हूँ विश्वास, निरीहों की उच्छवासों का
अम्बर में अटकी दृष्टि दिशाओं स्वासों का
उर में कराल कालाग्नि पचाने की क्षमता
आँसू अनुताप कराहों पर पूरी ममता।।३।।

विगलित हिमाद्रि आत्मदान की अमर चाह
अविराम जाह्नवी का हूँ पापांकुश प्रवाह
मैं हूँ सर्जन की दिशा, दशा षोडशोपचार विसर्जन की
मैं बाल्मीकि की व्यथा, कथा अनचाहे कठिन प्रवर्जन की।।४।।

मैं हूँ संताप, विलाप नहीं परिकर प्रबोध की परिभाषा
विभ्रम विलास की अनल ज्वाल, ठुकराये जीवन की आशा
मैं सहज प्रखर संदीप्त अन्धतम की ललकार सनातन हूँ
जौहर की ज्वाल कराल, दमकती ज्योति यशस्वी हूँ।।५।।

उद्भ्रान्त प्रवंचन के पथ का मैं धधक रहा तीसरा नयन
बलिदानी दिशा निहार किया हर बार कनिष्ठाधार चयन
क्या देख रहे, पथ छोड किनारे लगो, दम्भ का द्रोही हूँ
दुर्धर अनन्त संघर्षों का सौदागर, चिर विद्रोही हूँ।।६।।


............................................................ ओमशंकर

Wednesday 9 January 2013

मैं हूँ अलमस्त फ़कीर

मैं हूँ अलमस्त फ़कीर मुझे तकदीर न भाती है
दुनिया से दूर जमीर नहीं ऐयारी आती है।।

दुनिया के सब दस्तूर निराले हैं
दिखते भर उजले सचमुच काले हैं
इस जग का सर सामान न सस्ता है
दस-द्वारी खुला मकान विवशता है
सुखदायी सलिल-समीर कभी तट-नीर न आती है
मैं हूँ अलमस्त फ़कीर मुझे तकदीर न भाती है।।१।।


दुनिया दुनियादारों की कब होती
औचक ही खँजर तान खडी होती
अपनी अपनी अपनों की भाषाएँ
मन मोह रही मृगजल की आशाएँ
बोझिल हो गया शरीर पीर अब कहाँ सुहाती है
मैं हूँ अलमस्त फ़कीर मुझे तकदीर न भाती है।।२।।

हँसना-खिलना चलना रोना गाना
तूफ़ानों में घिर फ़िर-फ़िर घबराना
बीती विपत्ति पर हँसना खो जाना
यह राग पुराना फ़िर भी अनजाना
अब गयीं बहारें बीत नहीं पुरवाई भाती है
मैं हूँ अलमस्त फ़कीर मुझे तकदीर न भाती है।।३।।

बैरागी मन की रीति अनोखी है
पल में उदास पल भर में शोखी है
पतझार सँवारे पल्लव की राहें
झुलसी निदाध ने मधु ऋतु की चाहें
उठ रही हिये में हूक मूक वह कोयल गाती है
मैं हूँ अलमस्त फ़कीर मुझे तकदीर न भाती है।।४।।

जो भी होना है होने दो यारों
मत पग-पग पर टकरा-टकरा कर रो
मिलना-टलना दहना-बहना सहना
अपनों से अपनी पीर नहीं कहना
सब समय-समय की बात समय की टेर बुलाती है
मैं हूँ अलमस्त फ़कीर मुझे तकदीर न भाती है।।५।।

..................................................... ओमशंकर


Tuesday 25 December 2012

गीत मैं लिखता नहीं हूँ

गीत मैं लिखता नही हूं।
लाख कोशिश कर थका पर सामने दिखता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।

वर्जनायें हार थक कर बैठ जाती
वंचनायें मस्त मन-मन गुनगुनाती
याद डूबी साँझ झपकी ले रही है
और अपने हाथ थपकी दे रही है
ठिठकता हर ठौर, पर टिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।

पथ अभी भी हार कर आवाज देता
पर न पहले सा चपल अँदाज होता
पंथ ही पाथेय सुख दे रहा है
हर हवन में मन स्वयं होता रहा है
धार में घुलमिल गयी माटी, विरस सिकता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।

राह से हारा नहीं, युग का छला हूँ
चाह की कारा न, निर्जन में पला हूँ
नियति की चिन्ता नहीं, गति पर भरोसा
आ मिले परिणाम को किंचित न कोसा
स्वर्ण का सौदा नही, मैं भाव हूँ, बिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।

युग-प्रवर्तन की अनूठी भूमिका हूँ
सत्य-चित्रण की अनोखी तूलिका हूँ
नियति के आगे न किंचित विवश हूँ
जगत की हर रीति का अंतिम निकष हूँ
भर दिये अनगिन चषक, मैं सिन्धु हूँ, चुकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।

हो रहा जो भी उसे क्यों सह रहा हूँ
चाह कर भी क्यों नही कुछ भी कह रहा हूँ
मँजिलें अब भी बुलावा भेजती हैं
भावना पाथेय को क्यों देखती हैं
प्राण मेरे ! अब न क्यों लिखता सही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।


___________________ ओमशंकर

Sunday 23 December 2012

शाश्वत सुकून

मैं अपने प्राणों को पीकर पलता और
समाज की लाज बचाने के लिये
राहों पर
अपना कफ़न
ओढ कर चलता हूँ।

मैं एक ऐसा बँजारा हूँ
जिसके पास
गिरह बाँधने के लिये
सूत का एक टुकडा नहीं
और इस अभागी दुनिया को
भरमाने के लिये
किसी तरह का
मुखौटा चढा मुखडा भी नहीं।

मैं एक
अलमस्त फ़कीर हूँ
जिसकी झोली में
अपनी तकदीर
और मुट्ठियों में
खुद्दारी की तासीर नजरबन्द है।

मैं इंसान का पुतला भर नहीं
रूहानी ताकत का पैगाम
और अरमानों के अमृत से
छलकता हुआ जाम हूँ।

इसके अलावा
सूखे बरगद की ठठरी में
उलटे लटके चमगादडों को
जगाते, भगाते रहने वाला
जुनून
और भीतर ही भीतर
मस्त रहने वाला
शाश्वर सुकून हूँ।।


------------------ ओमशंकर


Saturday 10 November 2012

माटी की मूरतें

माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी
टुकडे-टुकडे सभी हो गयीं एक से एक नयी।।

माटी जिसमे बसी महक, जीवन की हरियाली
दुखिया का दुख दूर करे, कुछ ऐसी खुशहाली
दुनिया के गलीज को अपने भीतर मौन सिये
अन्धकार को पिये, सजाये ऐसे नये दिये
वही पूत धरती की जाया अपने हाथ लगी
विहँस उठी कल्पना, खिल उठी दुनिया नई नई।
माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी।।१।।

हँसी दिशायें, बोला अम्बर, पुरवा झूम उठी
छोड उदासी, उठी चेतना, तज सुनसान कुटी
ममता की पीडा क्षमता भर भरने को आया
दुनिया को दुनिया से कुछ-कुछ दूर उठा लाया
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न अपनी दुनिया छोड सका
इसी लिये मेरी माटी मुझसे ही  रूठ गई।
माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी।।२।।


----------------------- ओमशंकर

Thursday 24 May 2012

मुझको भावी से मतलब क्या




मुझको भावी से मतलब क्या, मैं वर्तमान का हामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।

महलों से हुआ न मोह कभी, कुटिया से नहीं गुरेज रहा
वैभव से चाव, अभावों से उतना न कभी परहेज रहा
मैनें मगहर को कब कोसा, काशी की कहाँ चिरौरी की
जिस धज से गोमुख को पूजा, तट ’कर्मनास’ की भँवरी की
हो नाम किसी का इससे क्या, मैं नाम नहीं नामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।१।।

अपनी मीनार उठाने को मन्नत मानी हो याद नहीं
उसकी दीवार न बन पाये जिद और नहीं फ़रियाद कहीं
संबल साधा आदर्शों का मृगतृष्णा हो अथवा यथार्थ
सुख-सूत्र सँवारे नहीं कभी, श्रीमन्तों से होकर कृतार्थ
खोने पाने का चाव नहीं, मैं आत्मदान का कामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।२।।

मैं कहाँ रहा किस दर भटका, इसका न हिसाब लगाया है
भीतर झाँका देखा पाया, हर दर अपनी ही छाया है
अब व्यर्थ मुझे दहलाना या बहलाना किसी बहाने से
हो गयी चाल बेहाल, हुई नदिया दो-चार मुहाने से
फ़िर सभी नजारे देख हो गया अपनेपन का स्वामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।३।।

आकुल प्राणॊं को पी-पीकर पाले अपने विश्वास विवश
अरमानों की आहुतियों से वेदी धधकाई रात - दिवस
संकल्प अधूरे झोली में, पाँवों की चाल निराली है
झँझायें उठने से पहले ही अपनी जोत बुझा ली है
जानता स्वर्ण-नगरी है यह, पर ओढे सीतारामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।४।।

संकेत व्यर्थ हों जहाँ, वहाँ अंकुश की भी औकात नहीं
रातें मसान जब हो जायें तब सपनों की सौगात कहीं?
दर-दर पसरा है बियावान, सुनसान हमारा सहचर है
हर पोर फ़कीरी बाने में, बस अँधकार भर अनुचर है
पग बढा रहा भरपूर, मगर लगता है विवश विरामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।५।।

मुझको भावी से मतलब क्या, मैं वर्तमान का हामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।


......................................... ओमशंकर

Sunday 6 May 2012

ओ जमीर देश के जगो


          ओ जमीर देश के जगो
          ओ फ़कीर देश के जगो
          ओ कबीर देश के जगो
          ओ समीर देश के जगो


सिन्धु सो रहा मसान में, हिन्द रो रहा जहान में,
अद्रि की शिखा अँगार है, जाह्नवी बडी उदार है,
दीप खूब जल रहे मगर अन्धकार से भरी डगर
कर्म की धुरी लचक गयी, धर्म की कमर मचक गयी
सत्य की जबान बन्द है, न्याय का विधान मन्द है
धूल फ़ाँकती सरस्वती, भोग में पगे सभी यती
शील अब लहू लुहान है, मेनका चढी मचान है
विश्व को विजय किया भले, आत्महीनता पडी गले।

          ओ सुधीर कर्म में पगो
          ओ जमीर देश के जगो।।१।।


सत्य दल गया प्रपंच से, नीति के विधान मंच से,
हर घडी विवश उदास है, कैद मे पडा हुलास है,
नीति में नही विधान है, धन सभी जगह प्रधान है,
सत्य का प्रभाव कण्ठ तक, सद्विचार सिर्फ़ ग्रन्थ तक,
ढोंग भर बची उपासना, फ़ूल फ़ल रही कुवासना,
कालनेमि रोज बढ रहे, आँजनेय मंत्र पढ रहे,
शून्य है स्वदेश-भावना, थक गयी अखण्ड साधना।

          ओ प्रवीर देश के जगो
          ओ जमीर देश के जगो।।२।।



...................................... ओमशंकर