मैं धारा के विपरीत चला विद्रोही हूँ
फ़िर भी अपनी मति-कृति का सन्तत मोही हूँ।।
अद्भुत अशान्त भावों का उठा बवन्डर हूँ
मैं धरती को धारे कठोरतम मन्दर हूँ
निभ्रान्त जगत की मैं अदम्य तरुणाई हूँ
निर्धूम वह्नि की या प्रदीप्त परछाईं हूँ।।१।।
मैं हूँ सरिता का स्रोत सरल पथ की सीमा
संघर्षण का उद्योत शक्ति का अथ भीमा
मैं अन्तरिक्ष की ज्वाला का आमंत्रण हूँ
धरती की ज्वालामुखियों का अभिमंत्रण हूँ।।२।।
मैं हूँ विश्वास, निरीहों की उच्छवासों का
अम्बर में अटकी दृष्टि दिशाओं स्वासों का
उर में कराल कालाग्नि पचाने की क्षमता
आँसू अनुताप कराहों पर पूरी ममता।।३।।
विगलित हिमाद्रि आत्मदान की अमर चाह
अविराम जाह्नवी का हूँ पापांकुश प्रवाह
मैं हूँ सर्जन की दिशा, दशा षोडशोपचार विसर्जन की
मैं बाल्मीकि की व्यथा, कथा अनचाहे कठिन प्रवर्जन की।।४।।
मैं हूँ संताप, विलाप नहीं परिकर प्रबोध की परिभाषा
विभ्रम विलास की अनल ज्वाल, ठुकराये जीवन की आशा
मैं सहज प्रखर संदीप्त अन्धतम की ललकार सनातन हूँ
जौहर की ज्वाल कराल, दमकती ज्योति यशस्वी हूँ।।५।।
उद्भ्रान्त प्रवंचन के पथ का मैं धधक रहा तीसरा नयन
बलिदानी दिशा निहार किया हर बार कनिष्ठाधार चयन
क्या देख रहे, पथ छोड किनारे लगो, दम्भ का द्रोही हूँ
दुर्धर अनन्त संघर्षों का सौदागर, चिर विद्रोही हूँ।।६।।
............................................................ ओमशंकर
अद्भुत उद्गार...प्रवाहमान, ओजस्वी, ऊर्ध्वमना।
ReplyDeleteजब भी उदास होता हूँ, इसको पढ कर नयी ऊर्जा का अनुभव करता हूं।
ReplyDeleteआचार्य जी आनंद की अनुभूति होती है।
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