गीत मैं लिखता नही हूं।
लाख कोशिश कर थका पर सामने दिखता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।
वर्जनायें हार थक कर बैठ जाती
वंचनायें मस्त मन-मन गुनगुनाती
याद डूबी साँझ झपकी ले रही है
और अपने हाथ थपकी दे रही है
ठिठकता हर ठौर, पर टिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
पथ अभी भी हार कर आवाज देता
पर न पहले सा चपल अँदाज होता
पंथ ही पाथेय सुख दे रहा है
हर हवन में मन स्वयं होता रहा है
धार में घुलमिल गयी माटी, विरस सिकता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
राह से हारा नहीं, युग का छला हूँ
चाह की कारा न, निर्जन में पला हूँ
नियति की चिन्ता नहीं, गति पर भरोसा
आ मिले परिणाम को किंचित न कोसा
स्वर्ण का सौदा नही, मैं भाव हूँ, बिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।
युग-प्रवर्तन की अनूठी भूमिका हूँ
सत्य-चित्रण की अनोखी तूलिका हूँ
नियति के आगे न किंचित विवश हूँ
जगत की हर रीति का अंतिम निकष हूँ
भर दिये अनगिन चषक, मैं सिन्धु हूँ, चुकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
हो रहा जो भी उसे क्यों सह रहा हूँ
चाह कर भी क्यों नही कुछ भी कह रहा हूँ
मँजिलें अब भी बुलावा भेजती हैं
भावना पाथेय को क्यों देखती हैं
प्राण मेरे ! अब न क्यों लिखता सही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
___________________ ओमशंकर
लाख कोशिश कर थका पर सामने दिखता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।
वर्जनायें हार थक कर बैठ जाती
वंचनायें मस्त मन-मन गुनगुनाती
याद डूबी साँझ झपकी ले रही है
और अपने हाथ थपकी दे रही है
ठिठकता हर ठौर, पर टिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
पथ अभी भी हार कर आवाज देता
पर न पहले सा चपल अँदाज होता
पंथ ही पाथेय सुख दे रहा है
हर हवन में मन स्वयं होता रहा है
धार में घुलमिल गयी माटी, विरस सिकता नही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
राह से हारा नहीं, युग का छला हूँ
चाह की कारा न, निर्जन में पला हूँ
नियति की चिन्ता नहीं, गति पर भरोसा
आ मिले परिणाम को किंचित न कोसा
स्वर्ण का सौदा नही, मैं भाव हूँ, बिकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नहीं हूँ।।
युग-प्रवर्तन की अनूठी भूमिका हूँ
सत्य-चित्रण की अनोखी तूलिका हूँ
नियति के आगे न किंचित विवश हूँ
जगत की हर रीति का अंतिम निकष हूँ
भर दिये अनगिन चषक, मैं सिन्धु हूँ, चुकता नहीं हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
हो रहा जो भी उसे क्यों सह रहा हूँ
चाह कर भी क्यों नही कुछ भी कह रहा हूँ
मँजिलें अब भी बुलावा भेजती हैं
भावना पाथेय को क्यों देखती हैं
प्राण मेरे ! अब न क्यों लिखता सही हूँ।
गीत मैं लिखता नही हूँ।।
___________________ ओमशंकर
प्रेरणात्मक भाव संजोये हुए कविता |
ReplyDeleteसादर
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ReplyDeleteबड़ी अदब से हर जुबां पर, ये बात होगी.
ReplyDeleteजिब्रे शख्सियत जब भी, सुपुर्दे ख़ाक होगी.
फर्क इतना ही होग़ा, उन रकीबी नज़रो में
रही नाराज़ तब, अब तनिक गम् साज़ होगी
फ़कते वक्त पे फकीरों पर, अब रहा कुछ ना.
फजाए च्ख्र फजल, बस फक्रे साथ होगी.
गिल आमेज़, तिफ्ले अश्क की दो चार बूद्ने.
सबो एहसास, शायद ही किसी का पास होगी.
रिसालाये बक्लमे खुद, लिखे दर हकीक़त को.
जिगर उसका सदर उसका, मेरी आवाज़ होगी
Penned Vikrant
मेरे कदमो के थापों से
ReplyDeleteजग सोंचे प्रतिकारी हूँ
पर सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मेरे मस्तक के ललाट पे
उठता है फिर प्रवाह प्रचंड
आज फोड़ दू हर उस सिर को
जिसमे भरा हो घोर घमंड
फिर चाहे जग बोले की
मै निर्मम अत्याचारी हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
कुंठित हो जाता मन मेरा
जिस पल कोई होता ना काम
शायद कोई छण ही बीता
जिस पल किया मैने आराम
विद्या बुधि ज्ञान से भरा
मै ही प्रतिभाशाली हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मै हूँ अमृत, मै ही हूँ विष
मै ही नरक की आग तपिश
मै ही शीतल जल धारा हूँ
मै पवन वेग सा भीम बलिष्ट
मै ही जग का पालक ब्रह्मा
मै त्रिलोचन महाकपाली हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
जो शीश झुका दे मानुस का
उस यन्चन का भी कहा अर्थ
जो हाथ बाँध दे प्राणी के
वो वंदन भी है निरा व्यर्थ
मै ही सृष्टी का एक तत्व
मै भोक्ता भोग्य पुजारी हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मैंने देवो से स्वर्ग छीन
मानवता में लुटा दिया
मिट सके प्यास इस धरती की
जीवन यश सारा बहा दिया
वो था इतिहास युधिस्ठिर का
अब मै सबसे बड़ा जुआरी हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मै अंगद का अडिग पैर
मै शत्रु खेमे में हलचल हूँ
जो सागर को भी बाँध सके
वो राम नाम का प्रस्तर हूँ
अब राख करूँ सारी लंका
मै बजरंग महा बवाली हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मै हर उत्तर पर प्रश्नचिन्ह.
हर उत्तर की मर्यादा हूँ.
मै जिज्ञासा की आंधी.
मै अनूठा नया इरादा हूँ.
सब कहते है मुझको पागल
पर मै सबसे बड़ा सवाली हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मुझसे आये हो लड़ने
क्या तुमको ये ज्ञात नहीं
क्या मोह मिट गया जीवन से
क्या प्राणों का भी साथ नहीं
जाओ देता मै अभयदान
मै ही विष्णु जग त्रिपुरारी हूँ
और सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
मेरे कदमो के थापों से
जग सोंचे प्रतिकारी हूँ
पर सारे जग में राज करूँ
मै ही वो अधिकारी हूँ
Penned Vikrant
स्वयं को जो अत्यधिक प्रिय होता है वह बाँटते में झिझक होती है, यह जानकर कि कोई उसका मोल समझेगा या नहीं..
ReplyDelete'मैं भाव हूँ, बिकता नहीं हूँ।'
ReplyDeleteइस भाव को प्रणाम!