माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी
टुकडे-टुकडे सभी हो गयीं एक से एक नयी।।
माटी जिसमे बसी महक, जीवन की हरियाली
दुखिया का दुख दूर करे, कुछ ऐसी खुशहाली
दुनिया के गलीज को अपने भीतर मौन सिये
अन्धकार को पिये, सजाये ऐसे नये दिये
वही पूत धरती की जाया अपने हाथ लगी
विहँस उठी कल्पना, खिल उठी दुनिया नई नई।
माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी।।१।।
हँसी दिशायें, बोला अम्बर, पुरवा झूम उठी
छोड उदासी, उठी चेतना, तज सुनसान कुटी
ममता की पीडा क्षमता भर भरने को आया
दुनिया को दुनिया से कुछ-कुछ दूर उठा लाया
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न अपनी दुनिया छोड सका
इसी लिये मेरी माटी मुझसे ही रूठ गई।
माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी।।२।।
----------------------- ओमशंकर
टुकडे-टुकडे सभी हो गयीं एक से एक नयी।।
माटी जिसमे बसी महक, जीवन की हरियाली
दुखिया का दुख दूर करे, कुछ ऐसी खुशहाली
दुनिया के गलीज को अपने भीतर मौन सिये
अन्धकार को पिये, सजाये ऐसे नये दिये
वही पूत धरती की जाया अपने हाथ लगी
विहँस उठी कल्पना, खिल उठी दुनिया नई नई।
माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी।।१।।
हँसी दिशायें, बोला अम्बर, पुरवा झूम उठी
छोड उदासी, उठी चेतना, तज सुनसान कुटी
ममता की पीडा क्षमता भर भरने को आया
दुनिया को दुनिया से कुछ-कुछ दूर उठा लाया
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न अपनी दुनिया छोड सका
इसी लिये मेरी माटी मुझसे ही रूठ गई।
माटी की मूरत बनाते आधी बीत गयी।।२।।
----------------------- ओमशंकर
आचार्य जी ,
ReplyDeleteप्रणाम
हालाँकि मैं कभी आपके स्कूल में तो नहीं पढ़ सका , लेकिन आपके बारे में इतना सुना है कि आपका शिष्य जरूर हूँ और आपको एक आदर्श मानता हूँ |
आपकी कविता के विषय में मुझे कुछ भी कहने का कोई अधिकार नहीं , मैं बस अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ लिखना चाहता हूँ -
रोज सुबह पूरब से कुछ सोंधी सी खुशबू आती है ,
रोज मेरे गाँव में शायद , बारिश होती होगी |
सादर
सबको अपना रूप खटकता,
ReplyDeleteनहीं श्रेय जो रचनाकृत था।