Saturday, 23 July 2011

धन्य धीरजी दोस्त धन्य



संसार बडा भोला भाला, फ़िर भी क्यो उससे विरति मुझे
निस्सार नियति के झोंके हैं, है याद नही कुछ सुरति मुझे।


इतिहास एक है सत्य तथ्य, उसका क्यों रूप सुहावन हो
है कर्मों का फ़ल तिक्त तीक्ष्ण, चाहे क्यों मनभावन हो
शैवाल वासना से लिबदी, जल राशि जिन्दगी की मैली
फ़िर भी लकदक परिधान बने पहचान पावनी युग शैली।


क्या सत्य और क्या झूठ मात्र परिभाषा के ताने-बाने
विश्वास-दगा सब काल रूप, कोई माने या मत माने
जीवन में रस भी है शायद, यह भी शंका के घेरे में
है काठ बना चलता फ़िरता, पुतला अनचाहे फ़ेरे में।


क्या करना है किसको कब तक इसका निर्धारण कौन करे
ऋण भरना है अनजानों का, जल्दी निस्तारण करो अरे
है प्रगति ज़िन्दगी की थाती यह भी सुख की कल्पना सुखद
गति की अनुभूति तभी तक है, जब तक क्षण आते नही दुखद।


पर दुख तो जीवन संगी है, विश्वास भरा हमराही है
जीवन है हर समझौते का "आँखों देखता" गवाही है
फ़िर भी उससे मुँह फ़ेर फ़ेर, जाने कितनी राहें बदली
विश्वास दिया अपघात लिया, लकडी सी सूख गयी कदली।


पर धन्य धीरजी दोस्त धन्य, हर मोड, खडे, तत्परता से
काँटे बबूल के फ़िर कम हैं तुम जीत गये नश्वरता से
मैं किन्तु नही हारा फ़िर भी, हारी मेरी कल्पना प्रबल
स्वर क्षीण किन्तु कुछ कहती है, अब भी मेरी साधना सबल।।






................................................................. ओमशंकर त्रिपाठी

Tuesday, 19 July 2011

खो मत धैर्य

हाय ! जग कुछ सोचता पर मर्म जाने कौन मेरा
मैं निराशा का पथिक पर आश का परिवेश मेरा
हृदय में जलती व्यथा के दहकते अंगार मेरे
पर मृदुल शीतल चतुर्दिक दे रहे संभार फ़ेरे।


आह अन्तर में संजोयी राह सूनी सी पडी है
भाव अधसूखे, उधर वह चाह संकोचिन खडी है
स्नेह जलकर भस्म बन नीचे धरातल पर पडा है
अधर पर बरबस मधुर मुस्कान धारण कर खडा है।


मैं किसे पीडा सुनाऊं कौन मेरी सुन सकेगा
कौन सह-अनुभूति का सच्चा ग्रहण-कर्ता बनेगा
कौन सुनकर वेदना, दो अश्रु के कण ढाल देगा
और अपना भी हृदय, पर-वेदना से साल देगा।


पास किसके बैठ अन्तर खोल किसको दिखाऊं
हाथ मे ले कर कलेजे से कहो किसको लगाऊं
छद्मवेशी मैं कहो फ़िर कौन खुलने पर रहेगा
किन्तु ! खो मत धैर्य बहुवेशी तुम्हारा साथ देगा।




.......................................................... ओमशंकर त्रिपाठी

Thursday, 14 July 2011

समय है अब भी चेतो जागो

भावना नियति की आँच न जब सह पाती।
तब अन्तर्पीडा नयनों में छा जाती॥


श्वासों की छलना जब मन को छलती है
ज्वाला धरती से अम्बर तक जलती है
जब सत्य सुधा विषमान त्यक्त होता है
संकेतों से बैखरी व्यक्त होती है
जब हृदय-हृदय की दूरी है बढ जाती
सूखी सरिता की छाती भी फ़ट जाती॥


जब स्वत्व सत्य से आतंकित रहता है
आंचल प्रसूत से ही शंकित रहता है
जब अनुनय की भाषा प्रपंच होती है
परवाह धर्म की जब न रंच होती है
सुख-सुविधायें जब परिपाटी हो जाती
यह दिव्य देह बस माटी भर रह जाती॥


इसी लिये समय है अब भी चेतो जागो
सविता से दीप्त विवेक मुखर हो मांगो
संयम साधना सुकर्म धर्म को जानो
अपनों को अपने से पहले पहचानो
देखो बेसुध माता आँचल फ़ैलाती
माँगो विवेक की आँख वज्र की छाती॥




................................................ ओमशंकर त्रिपाठी