हाय ! जग कुछ सोचता पर मर्म जाने कौन मेरा
मैं निराशा का पथिक पर आश का परिवेश मेरा
हृदय में जलती व्यथा के दहकते अंगार मेरे
पर मृदुल शीतल चतुर्दिक दे रहे संभार फ़ेरे।
आह अन्तर में संजोयी राह सूनी सी पडी है
भाव अधसूखे, उधर वह चाह संकोचिन खडी है
स्नेह जलकर भस्म बन नीचे धरातल पर पडा है
अधर पर बरबस मधुर मुस्कान धारण कर खडा है।
मैं किसे पीडा सुनाऊं कौन मेरी सुन सकेगा
कौन सह-अनुभूति का सच्चा ग्रहण-कर्ता बनेगा
कौन सुनकर वेदना, दो अश्रु के कण ढाल देगा
और अपना भी हृदय, पर-वेदना से साल देगा।
पास किसके बैठ अन्तर खोल किसको दिखाऊं
हाथ मे ले कर कलेजे से कहो किसको लगाऊं
छद्मवेशी मैं कहो फ़िर कौन खुलने पर रहेगा
किन्तु ! खो मत धैर्य बहुवेशी तुम्हारा साथ देगा।
.......................................................... ओमशंकर त्रिपाठी
जब कोई नहीं सुनता है तो कविता सुनती है, संजो लेती है और अनुकूल समय में स्वयं को उद्घाटित करती है।
ReplyDeleteAacharya ji Sadar pranam .lambe antaral ke bad aapse samvad kar raha hoon,asha hai ki kuch dhundala sa yaad awashya hoonga. Achchee kavita hamesha achchee hi lagati hai.Vidyalaya main de gayi shiksha aur sansakar nibhane ka prayas sadaive rahega - Lt Col manish Agrawal,Military hospital,jalandhar cant.Mob-08146611055
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