Thursday, 14 July 2011

समय है अब भी चेतो जागो

भावना नियति की आँच न जब सह पाती।
तब अन्तर्पीडा नयनों में छा जाती॥


श्वासों की छलना जब मन को छलती है
ज्वाला धरती से अम्बर तक जलती है
जब सत्य सुधा विषमान त्यक्त होता है
संकेतों से बैखरी व्यक्त होती है
जब हृदय-हृदय की दूरी है बढ जाती
सूखी सरिता की छाती भी फ़ट जाती॥


जब स्वत्व सत्य से आतंकित रहता है
आंचल प्रसूत से ही शंकित रहता है
जब अनुनय की भाषा प्रपंच होती है
परवाह धर्म की जब न रंच होती है
सुख-सुविधायें जब परिपाटी हो जाती
यह दिव्य देह बस माटी भर रह जाती॥


इसी लिये समय है अब भी चेतो जागो
सविता से दीप्त विवेक मुखर हो मांगो
संयम साधना सुकर्म धर्म को जानो
अपनों को अपने से पहले पहचानो
देखो बेसुध माता आँचल फ़ैलाती
माँगो विवेक की आँख वज्र की छाती॥




................................................ ओमशंकर त्रिपाठी

2 comments:

  1. आपकी कविता की प्रतीक्षा कर रहा था इस ब्लॉग पर। जब स्वयं का विवेक ही संवेदनशून्य हो जाये तो औरों को कौन उबारेगा। यही मानसिकता पूरे देश को लीले जा रही है।

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  2. बहुत अच्छा आचार्य जी, बहुत दिनों बाद आपकी रचना पड़ने को मिली.. और प्रेरणा भी.
    गुरु दिवस पर सादर प्रणाम निवेदित है

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