मुझको भावी से मतलब क्या, मैं वर्तमान का हामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।
महलों से हुआ न मोह कभी, कुटिया से नहीं गुरेज रहा
वैभव से चाव, अभावों से उतना न कभी परहेज रहा
मैनें मगहर को कब कोसा, काशी की कहाँ चिरौरी की
जिस धज से गोमुख को पूजा, तट ’कर्मनास’ की भँवरी की
हो नाम किसी का इससे क्या, मैं नाम नहीं नामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।१।।
अपनी मीनार उठाने को मन्नत मानी हो याद नहीं
उसकी दीवार न बन पाये जिद और नहीं फ़रियाद कहीं
संबल साधा आदर्शों का मृगतृष्णा हो अथवा यथार्थ
सुख-सूत्र सँवारे नहीं कभी, श्रीमन्तों से होकर कृतार्थ
खोने पाने का चाव नहीं, मैं आत्मदान का कामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।२।।
मैं कहाँ रहा किस दर भटका, इसका न हिसाब लगाया है
भीतर झाँका देखा पाया, हर दर अपनी ही छाया है
अब व्यर्थ मुझे दहलाना या बहलाना किसी बहाने से
हो गयी चाल बेहाल, हुई नदिया दो-चार मुहाने से
फ़िर सभी नजारे देख हो गया अपनेपन का स्वामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।३।।
आकुल प्राणॊं को पी-पीकर पाले अपने विश्वास विवश
अरमानों की आहुतियों से वेदी धधकाई रात - दिवस
संकल्प अधूरे झोली में, पाँवों की चाल निराली है
झँझायें उठने से पहले ही अपनी जोत बुझा ली है
जानता स्वर्ण-नगरी है यह, पर ओढे सीतारामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।४।।
संकेत व्यर्थ हों जहाँ, वहाँ अंकुश की भी औकात नहीं
रातें मसान जब हो जायें तब सपनों की सौगात कहीं?
दर-दर पसरा है बियावान, सुनसान हमारा सहचर है
हर पोर फ़कीरी बाने में, बस अँधकार भर अनुचर है
पग बढा रहा भरपूर, मगर लगता है विवश विरामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।५।।
मुझको भावी से मतलब क्या, मैं वर्तमान का हामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।
......................................... ओमशंकर