Thursday, 24 May 2012

मुझको भावी से मतलब क्या




मुझको भावी से मतलब क्या, मैं वर्तमान का हामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।

महलों से हुआ न मोह कभी, कुटिया से नहीं गुरेज रहा
वैभव से चाव, अभावों से उतना न कभी परहेज रहा
मैनें मगहर को कब कोसा, काशी की कहाँ चिरौरी की
जिस धज से गोमुख को पूजा, तट ’कर्मनास’ की भँवरी की
हो नाम किसी का इससे क्या, मैं नाम नहीं नामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।१।।

अपनी मीनार उठाने को मन्नत मानी हो याद नहीं
उसकी दीवार न बन पाये जिद और नहीं फ़रियाद कहीं
संबल साधा आदर्शों का मृगतृष्णा हो अथवा यथार्थ
सुख-सूत्र सँवारे नहीं कभी, श्रीमन्तों से होकर कृतार्थ
खोने पाने का चाव नहीं, मैं आत्मदान का कामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।२।।

मैं कहाँ रहा किस दर भटका, इसका न हिसाब लगाया है
भीतर झाँका देखा पाया, हर दर अपनी ही छाया है
अब व्यर्थ मुझे दहलाना या बहलाना किसी बहाने से
हो गयी चाल बेहाल, हुई नदिया दो-चार मुहाने से
फ़िर सभी नजारे देख हो गया अपनेपन का स्वामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।३।।

आकुल प्राणॊं को पी-पीकर पाले अपने विश्वास विवश
अरमानों की आहुतियों से वेदी धधकाई रात - दिवस
संकल्प अधूरे झोली में, पाँवों की चाल निराली है
झँझायें उठने से पहले ही अपनी जोत बुझा ली है
जानता स्वर्ण-नगरी है यह, पर ओढे सीतारामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।४।।

संकेत व्यर्थ हों जहाँ, वहाँ अंकुश की भी औकात नहीं
रातें मसान जब हो जायें तब सपनों की सौगात कहीं?
दर-दर पसरा है बियावान, सुनसान हमारा सहचर है
हर पोर फ़कीरी बाने में, बस अँधकार भर अनुचर है
पग बढा रहा भरपूर, मगर लगता है विवश विरामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।५।।

मुझको भावी से मतलब क्या, मैं वर्तमान का हामी हूँ।
हो कोई साथ नहीं फ़िर भी अपने पथ का अनुगामी हूँ।।


......................................... ओमशंकर

Sunday, 6 May 2012

ओ जमीर देश के जगो


          ओ जमीर देश के जगो
          ओ फ़कीर देश के जगो
          ओ कबीर देश के जगो
          ओ समीर देश के जगो


सिन्धु सो रहा मसान में, हिन्द रो रहा जहान में,
अद्रि की शिखा अँगार है, जाह्नवी बडी उदार है,
दीप खूब जल रहे मगर अन्धकार से भरी डगर
कर्म की धुरी लचक गयी, धर्म की कमर मचक गयी
सत्य की जबान बन्द है, न्याय का विधान मन्द है
धूल फ़ाँकती सरस्वती, भोग में पगे सभी यती
शील अब लहू लुहान है, मेनका चढी मचान है
विश्व को विजय किया भले, आत्महीनता पडी गले।

          ओ सुधीर कर्म में पगो
          ओ जमीर देश के जगो।।१।।


सत्य दल गया प्रपंच से, नीति के विधान मंच से,
हर घडी विवश उदास है, कैद मे पडा हुलास है,
नीति में नही विधान है, धन सभी जगह प्रधान है,
सत्य का प्रभाव कण्ठ तक, सद्विचार सिर्फ़ ग्रन्थ तक,
ढोंग भर बची उपासना, फ़ूल फ़ल रही कुवासना,
कालनेमि रोज बढ रहे, आँजनेय मंत्र पढ रहे,
शून्य है स्वदेश-भावना, थक गयी अखण्ड साधना।

          ओ प्रवीर देश के जगो
          ओ जमीर देश के जगो।।२।।



...................................... ओमशंकर

दुनिया वालों मत समझो कंगाल


कितनों को चाहा मैने अपनी दुनिया में
लेकिन वे जाने अनजाने छूट गये
जितनों को थाहा जाकर उनकी दुनिया में
छिछले थे इसलिये व्यर्थ में रूठ गये
बस इसी लिये पैगाम कबीरी लाया हूँ।
दुनिया वालों, मत समझो कंगाल
असल सरमाया हूँ...................।।१।।


दुनिया नयी निराली सबकी प्यारी है
जंगल झाडी बगिया कहीं कियारी है
अलबेले व्यवहार घुमावी रस्ते हैं
लगते हैं दमदार असल में सस्ते हैं
यह बाजार सजा है दुनिया वालों का
छटे लुटेरों का बेकस रखवालों का
कहीं लगा दरबार इन्द्र का रौनक से
करती है परिहास मेनका शौनक से
कहीं सलोने सपने हैं जमुहाई में
बीत रही ज़िन्दगी कहीं तनहाई में
बजते झाँझ-मृदंग सबेरे मन्दिर में
जगते ज्वार शाम को छिपे समंदर में
देखो अपना रूप आइना लाया हूँ।
दुनिया वालों, मत समझो कंगाल
असल सरमाया हूँ...................।।२।।


पास न मेरे दौलत या मक्कारी है
और दुरंगों से की कभी न यारी है
किस्मत की सीढी को कभी न साधा है
साथ निभाती आई जग की बाधा है
इसीलिये ठोकर खाने का आदी हूँ
खाते पीते घर की बस बरबादी हूँ
कहता हूँ पर कहीं न सुनने वाला है
कहने का तुक तेवर तनिक निराला है
दुनिया है मदमस्त सलोनी राहों में
सपनों की तस्वीर बसी है चाहों में
घुटन है विश्वास तडपती ममता है
लकवा मारी पडी युवा की क्षमता है
इसीलिये मन की मशाल जला रोशनी लाया हूँ।
दुनिया वालों, मत समझो कंगाल
असल सरमाया हूँ...................।।३।।



................................. ओमशंकर