Wednesday, 20 April 2011

मै - तुम



मैने गीत व्यथा के गाये, तुमने कथा शौर्य की बाँची,
मेरे मन मे भ्रमर गूंजते, तेरे संग कालिका नाची।

मै अथाह सागर सबकुछ पी लेने का अभ्यास हमारा,

पायस की उफ़नती नदी तुम, काट बहाती कूल किनारा,
मैं बट-छाँव जहाँ खग-मृग के साथ थका मानव सोता है,
तुम भविष्य का दाँव जहाँ संकल्पों को जीवन ढोता है ।

गगन गिरा गंभीर हमारी वाणी, प्राणवान करती है,
भैरव भरी समीर तुम्हारी, पाप जगत का हँस हरती है,
मै अनन्त की दिशा, दशा हो तुम अनादि के रूप राशि की,
भाषा की लक्षणा अभी मैं, तुम नाटक की वृत्ति कैशकी ।

मै संसार, असार तुम, मै विहार और तुम कण्ठहार हो,
नदी पार का तट सुरम्य मैं, तुम तटनी की दुसह धार हो,
तुम हो बीन रागिनी मै हूँ, मै प्रभात तुम कलरव स्वर हो,
अन्तरमन का भाव अमर मै, वाणी का तुम राग मुखर हो ।

मै या तुम अथवा मै - तुम का यह संसार समन्वित फ़ल है,
हुआ आज जो जिस गति-मति से वो जगत का निश्चित कल है,
इसी लिये मै - तुम महत्वमय माने जाते इस प्रपंच मे,
किन्तु न मै समझ सका अपने को, समझ सका न तुम्हे रंच मै ॥



............................................................................... ओम शंकर त्रिपाठी



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