Sunday 23 December 2012

शाश्वत सुकून

मैं अपने प्राणों को पीकर पलता और
समाज की लाज बचाने के लिये
राहों पर
अपना कफ़न
ओढ कर चलता हूँ।

मैं एक ऐसा बँजारा हूँ
जिसके पास
गिरह बाँधने के लिये
सूत का एक टुकडा नहीं
और इस अभागी दुनिया को
भरमाने के लिये
किसी तरह का
मुखौटा चढा मुखडा भी नहीं।

मैं एक
अलमस्त फ़कीर हूँ
जिसकी झोली में
अपनी तकदीर
और मुट्ठियों में
खुद्दारी की तासीर नजरबन्द है।

मैं इंसान का पुतला भर नहीं
रूहानी ताकत का पैगाम
और अरमानों के अमृत से
छलकता हुआ जाम हूँ।

इसके अलावा
सूखे बरगद की ठठरी में
उलटे लटके चमगादडों को
जगाते, भगाते रहने वाला
जुनून
और भीतर ही भीतर
मस्त रहने वाला
शाश्वर सुकून हूँ।।


------------------ ओमशंकर


2 comments:

  1. Respected Sir,
    Charan sparsh

    Sending you a poem penned by me...

    "जलता रहा जो उम्र भर, नज़रो को देने रोशनी!
    के क़र्ज़ की कीमत चुका, ला आँख में बेहद नमी!
    इक बार ये भी हो गया, के रूक गयी धड़कन मेरी!
    क्या दौर था वो इन्कलाब, थे जोश में बेहद सभी!
    दम साथ दे तो ठीक था, कह देगे उसका शुक्रिया!
    हम थे की जो हँसते रहे, दिल में ले बेहद गमी!
    बे वास्ता सब लुट गया, नफरत में कुछ प्यार में!
    बड़ता रहा फज़ल मगर, ला नाज़े दम बेहद कमी!
    दर मौत जा हासिल हुआ, हूनर भी क्या लाजवाब!
    जीने की जिद है जिंदगी, ये बात तब बेहद जमी!"


    Vikrant

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  2. आत्म व्यस्त तो शेष स्वस्थ है।

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