Thursday, 24 March 2011

मै अमा का दीप हूँ



मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।
चाँदनी मुझको न छेडे आज, कह दो ॥

जानता हूँ अब अंधेरे बढ रहे हैं
क्षितिज पर बादल घनेरे चढ रहे है
आँधियाँ कालिख धरा की ढो रही है
व्याधियाँ हर खेत में दुख बो रही हैं
फ़ूँक दो अरमान की अरथी हमारी
मैं व्यथा का गीत हूँ, जलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।

मानता हूँ डगर यह दुर्गम बहुत है
प्राण का पाथेय चुकता जा रहा है
आँधियाँ मन की जलाशय खोजती हैं
भावना का यान रुकता जा रहा है
सिन्धु से कह दो गगन की आस छोडे
चाँदनी का क्रीत हूँ, गलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।

साधना की सीप मोती को तरसती
कामना मुरझा गयी किलकारियों की
पवन की साँसें अटकती जा रही हैं
याचना सकुचा रही शरमा रही है
नलिन अब दिनमान को चाहे न चाहे
पथिक हूँ, अविराम गति चलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।

...................................................... ओमशंकर त्रिपाठी




Monday, 14 March 2011

तुम्हारे दिव्य रथ पर



कह गये कब स्नेह से तुम थे विदा लो
खोज लो अन्यत्र अपना वास, जीवन अधखिला है।

कब झटक कर बाँह अरुणायी संजोये
तोड दी डोरी प्रणय की भावनाओं से सँवारी।

तुम गये आश्वस्त करके मीत मेरे
लौटने की लौ लगी ही रह गयी है
स्नेह की शहनाई कुछ गूँजी अधर में
भावना की टेक टूटी कह गयी है ।

जब विदा ही माँगने मुझसे चले थे
उस बेचारे के लिये भी सोंच लेते
स्वयं की बोई हुई लोनी लता को
उस बिदाई के समय ही नोंच लेते।

हो चुकी होती तभी निश्चिंत मै भी
शुष्क हो कर्तव्य के इस अग्नि पथ पर
झिलमिला कर जल प्रकाशित कर जगत को
आ मिली होती तुम्हारे दिव्य रथ पर।



................................................... ओमशंकर



Thursday, 10 March 2011

राष्ट्र मंदिर का पुजारी


राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।

त्याग का पाथेय अक्षय पास मेरे
क्रूर कंटक दलन का उत्साह प्रेरे
विश्वविजयी भावना से मै भरा हूं
मै न अल्हड बाल या जर्जर जरा हूँ
हूँ पथिक अविराम, क्षण भर भी सुखद विश्राम का कामी नही हूँ ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

पंथ दुर्गम है कठिन भी जानता हूँ
विघ्न-बाधायें बहुत है मानता हूँ
लक्ष्य का उन्नत शिखर अति दूर दुस्तर
फ़िसलता चमचम चिलकता पंथ प्रस्तर
सततता का मैं अथक अभ्यास, कुंठित हार का हामी नही हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

साधना का दीप हरदम ही जला है
भावना-संगीत अंतर मे पला है
रूठकर सुविधा सलोनी जा चुकी है
वह विराग बयार भी मुरझा चुकी है
लक्ष्य अच्युत अभय संधान, यश का किन्तु अनुगामी नहीं हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

मै चला हूँ और चलता ही रहूँगा
अंधतम में ज्योति बन जलता रहूँगा
मोह के बादल भले घिर घोर छाये
द्रोह की काली घटाय्रं रीत जायें
सूर्य की पहली किरण का गीत मैं, अँधियार का हामी नही हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

हो निराशा की भले घर-घर कहानी
झूम झंझायें उठे खोये निशानी
जान्हवी पथ सिंधु का भ्रम भूल जाये
अंधतम रवि को भले ही लील जाये
शुध्द शोणित का उमडता ज्वार हँ, पानी नही हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।




Sunday, 6 March 2011

कठिन समय


कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है।
अपने पूत, कपूत हो गये, कैसी दुनिया होती है ।।

परम विभव पर बैठाने का गया सत्य संकल्प कहाँ ?
"देश प्रथम हम पीछे" वाला भाव खो गया कहो कहाँ ?
सुविधा को कोसते हुए, क्यो सुविधा के आगोश हुए ?
सत्य-व्रत की परिभाषा थे मिथ्या के ही कोष हुए ?
कैसा यह संदेश बिलारी सुबह-सुबह क्यॊ रोती है ?
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

लिये वज्र संकल्प सो गये अपनी भरी जवानी में
बैठ गया आवेश सिमट कर केवल कथा कहानी मे
लाल पडे नासूर अभी भी माँ के शीश भुजाओं पर
हुआ तुषारापात न जाने क्यो आवेश उछाहों पर
आँखों के मोती चुप-चुप माँ निशि-दिन क्षिति में बोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

अपना-अपना राग न कोई सुनने वाला मिलता है
गाँव गली वीरान न मन अब पहले जैसा खिलता है
सुबक रही असहाय लोक की मर्यादा बेचारी है
कर्मठता बदनाम शान से मुकुट धरे मक्कारी है
अपनों को अपनापन, अपनी माता घुट-घुट रोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

छीना झपटी लपड-झपड में मर्यादा बेपर्दा है
हया, शर्म, संकोच, शील, सच, संयम गर्दा-गर्दा हैं
सरे आम नीलाम हो रहे दाम लग रहे अस्मत के
छलनी भीतर दूध दुहाये, दोष बेचारी किस्मत के
भारत की संतान अमावस की चादर में सोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

हमसे अच्छे तोता-मैना सीखा पाठ सुनाते हैं
हम गद्दार शपथ को छिछले सुख के लिये भुनाते हैं
"कथनी करनी एक सदा" उपदेश अभी भी होता है
पर विश्वास विखंडित सूने मे घुट-घुट कर रोता है
इन खारे बूँदों को कैसे कह दें मानस मोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥




Wednesday, 2 March 2011

अपनी परिभाषा क्या


कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या
अरमानों की अरथी सिर पर अपनी आशा क्या ।

मै मन की वह आग जिसे कोई न बुझाता है
दुनिया का बैराग कथित जो सबको आता है
सर्जन का अंकुर बढने से जो घबराता है
राग किसी का अपने सुर में खूब सुनाता है
मन है भरी बजार अकेली ही अभिलाषा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

एक मिला था छोटा नन्हा सा घर रहने को
और एक चेतन था उसमे उससे कहने को
भूल भटक कर घर का ही विस्तार किया मैने
माटी का माटी से रुच श्रंगार किया मैने
मरी हुई माटी से अब उगने की आशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

दिन को रात, रात को दिन करते बीती काया
भरी दुपहरी को सूरज से भी काली छाया
यह दुनिया का सच था अथवा यह ही माया
जिसने इस मनमाने पन से अब तक भरमाया
भटके हुए पथिक को आशा और निराशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

बियावान वन और अंधेरा होगा बडा घना
चारो ओर अपरिचित सांसों का विस्तार तना
दुनिया संभ्रम और विवशता का मंजर होगा
अपने को चुभता सा अपना ही खंजर होगा
ऐसे मे बैराग या कि फ़िर राग पिपासा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

तन-मन का रहस्य बैरागी जिग्यासा चुप है
किसके लिये कौन क्या बाँधे अंधियारा घुप है
जो होना है हो ले कर ले जो जिसको करना
अपने को जो भी करना या जो भी कुछ भरना
उसके लिये कौन चिन्ता अब और दुराशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

.............................................................. ओमशंकर




मुझको जलना ही कबूल है


मेरा जीवन नन्दन वन है या पतझड का बबूल है,
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है।

तुम बौराये आम्रकुँज मधुकर की वीणा नियति तुम्हारी
मै अँकुर हूँ स्वाभिमान का, चुभ जाना ही प्रकृति हमारी
यह मुरझाई पडी जिन्दगी तब कराह के क्षण जीती है
जब बासन्ती पवन तुम्हारा गन्ध भार हँस कर ढोती है
चैल हीन जीवन की फ़लश्रुति फ़िर कैसा मेरा दुकूल है।
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है॥

तुम समीर मैं धूल धरा की रौंद न जाओ तनिक रुको तो
आकाशी चोटी पर हूँगा कसम तुम्हारी तनिक झुको तो
मलय गगन की राह लग गयी सूना आँचल मुझे पुकारे
मैं अंकुर की गोद थकन की नीद तुम्हारे नेह सहारे
कोई किसी का दर्द दुलारे कोई माने उसे भूल है।
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है॥

तुम समर्थ निरपेक्ष विश्व हो मै संसार असार विखण्डित
तुम अथाह जलराशि महातम मै विवर्त केवल प्रतिबिम्बित
तुम अनन्त तो मैं बसन्त हूँ, तुम चन्दन मै सुरभि तुम्हारी
तुम कजरारे मेघ, तुम्हारे आँचल मे जल राशि हमारी
कोई तुम्हे शिखर में देखे कोई कहता तुम्हे मूल है।
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है॥

मेरा जीवन नन्दन वन है या पतझड का बबूल है,
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है।



................................................................... ओमशंकर



क्यों हरना पडॆ कुछ भी


प्रबल विश्वास बोना है
युगों तक साँस ढोना है
जिसे जैसा बने कर ले
हमे परिहास ढोना है
हमारे हर कदम असफ़ल, सरल पथ आग जैसा है,
जिसे गलहार समझा था, वही अब नाग जैसा है ।

कलम के शब्द मोती से
ठिकरियों की ठिठोली है
वही तेजस्विनी हुँकार
मरियल श्वान बोली है
समय का फ़ेर भारी मोल लेकर भी नही थमता
निराशा से भरा मन रम्य पथ पर भी नही रमता ।

प्रबल विश्वास बोते हाथ
थर-थर काँप जाते है
तनिक भी इंच भर दूरी
गजों तक नाप जाते है
विधाता ! कुछ करो ऐसा, न अब करना पडे कुछ भी
किसी को दे न पाया कुछ, तो क्यों हरना पडे कुछ भी ।



............................................................  ओमशंकर



अपनी कारा तोडो


जब चहुँ ओर बिखर कर मैं ही मै मुझको दिखता है
कर फ़िर कर्म लेखनी ले निज भाग्य स्वयं लिखता है

मन का अँधियारा जलकर जब ज्योतिमान बनता है
सपनों का संसार अनोखे कीर्तिमान जनता है

जब स्वतंत्र परिवेश पराया साथ छोड बढता है
अन्तरिक्ष का कोण-कोण अध्याय नये गढता है

होता स्वत्व स्वतंत्र और तन के बन्धन खुलते हैं
किरण-किरण हंसती सुवर्ण-कण कण-कण मे घुलते हैं

ग्यान गर्व से मुक्त सर्व, स्वागत को कर फ़ैलाता
’मान’ गर्व पर्याय नही सम्मान-पात्र कहलाता

हर मन्दिर आरती सजा मंगल गान करता है
तन भर का ही नही, ताप अन्तरतम का हरता है

भरता है सन्देश सत्य का कानों में युग-कवि के
धरती पुलक रूप दर्शाती है बसन्त की छवि के

अपना स्वत्व विलुप्त एक क्षण को जब भी होता है
अपने को अपनो के हित जब-जब छिति मे बोता है

खिलते शाश्वत सुमन सुरभिमय गन्धवाह बहते हैं
आशा के अध्याय व्यास-गद्दी से कवि कहते हैं

तब इतिहास गर्व से गाथा कहता है पुरुखों की
जन-मन की अभिलाष पूर्ण हो जाती है वर्षों की

रे, मन बिखर उठॊ कण-कण मे, अपनी कारा तोडो
दमक उठे धरती का आँचल युग की धारा मोडो ।



...................................................... ओम शंकर



राही अभी नही.............



थकी चाह इस बीच राह में ?
राही अभी नही................
पकड देख पाथेय, अरे, बस मंजिल यहीं कही
राही अभी नही................

सरिता, सर, दुर्गम गिरि, गहर कितने पार किये
अमर बूँद की आशा में अनगिन विष घूँट पिये
माना कठीन कुराह सिरे से सिर चढ कर आयी
कई चमकते शिखर खोद कर छोड गयी खाई
तो भी कहीं विराम बीच में राही, नही - नही
राही अभी नही................

माथे चढी शपथ चलने की अन्तर में ज्वाला
तलुओं पर चिरचिटे मढ गया आँखों पर जाला
फ़िर भी मन हिम्मतवाला, पर "अपने" दूर खडे
आकर गुँथे नागफ़नियों से काँटे बडे - बडे
होकर लहूलुहान चकित सा तबसे खडा यहीं
राही अभी नही................

धीरज दिया सदा ही तुमने और बढाया भी
पीछे रह उँचे शिखरों तक मुझे चढाया भी
फ़िर भी लिपटी ध्वजा हाथ की नही लहर पाई
ऊपर नीचे देख हो गया मन काई - काई
कैसे बनूँ निशान समय का दुनियाँ दूर नही
राही अभी नही................



............................................ ओम शंकर



मुक्तक



कविता कर्म है अधिकार नही
कविता धर्म है व्यापार नही
कविता तत्व है सम्भार नही
कविता स्वत्व है संसार नही

................................ ओमशंकर