मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।
चाँदनी मुझको न छेडे आज, कह दो ॥
जानता हूँ अब अंधेरे बढ रहे हैं
क्षितिज पर बादल घनेरे चढ रहे है
आँधियाँ कालिख धरा की ढो रही है
व्याधियाँ हर खेत में दुख बो रही हैं
फ़ूँक दो अरमान की अरथी हमारी
मैं व्यथा का गीत हूँ, जलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।
मानता हूँ डगर यह दुर्गम बहुत है
प्राण का पाथेय चुकता जा रहा है
आँधियाँ मन की जलाशय खोजती हैं
भावना का यान रुकता जा रहा है
सिन्धु से कह दो गगन की आस छोडे
चाँदनी का क्रीत हूँ, गलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।
साधना की सीप मोती को तरसती
कामना मुरझा गयी किलकारियों की
पवन की साँसें अटकती जा रही हैं
याचना सकुचा रही शरमा रही है
नलिन अब दिनमान को चाहे न चाहे
पथिक हूँ, अविराम गति चलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।
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aapki har ek kavita me hum sab ke lie hamesha motivation rahta hai.
ReplyDeleteand this is one of best example ...
Respected Sir,
ReplyDeleteSadar Charan Sparsh
This poem always give me a lot inspiration.
Vikrant