Wednesday, 2 March 2011

अपनी परिभाषा क्या


कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या
अरमानों की अरथी सिर पर अपनी आशा क्या ।

मै मन की वह आग जिसे कोई न बुझाता है
दुनिया का बैराग कथित जो सबको आता है
सर्जन का अंकुर बढने से जो घबराता है
राग किसी का अपने सुर में खूब सुनाता है
मन है भरी बजार अकेली ही अभिलाषा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

एक मिला था छोटा नन्हा सा घर रहने को
और एक चेतन था उसमे उससे कहने को
भूल भटक कर घर का ही विस्तार किया मैने
माटी का माटी से रुच श्रंगार किया मैने
मरी हुई माटी से अब उगने की आशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

दिन को रात, रात को दिन करते बीती काया
भरी दुपहरी को सूरज से भी काली छाया
यह दुनिया का सच था अथवा यह ही माया
जिसने इस मनमाने पन से अब तक भरमाया
भटके हुए पथिक को आशा और निराशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

बियावान वन और अंधेरा होगा बडा घना
चारो ओर अपरिचित सांसों का विस्तार तना
दुनिया संभ्रम और विवशता का मंजर होगा
अपने को चुभता सा अपना ही खंजर होगा
ऐसे मे बैराग या कि फ़िर राग पिपासा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

तन-मन का रहस्य बैरागी जिग्यासा चुप है
किसके लिये कौन क्या बाँधे अंधियारा घुप है
जो होना है हो ले कर ले जो जिसको करना
अपने को जो भी करना या जो भी कुछ भरना
उसके लिये कौन चिन्ता अब और दुराशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

.............................................................. ओमशंकर




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