Wednesday, 2 March 2011

क्यों हरना पडॆ कुछ भी


प्रबल विश्वास बोना है
युगों तक साँस ढोना है
जिसे जैसा बने कर ले
हमे परिहास ढोना है
हमारे हर कदम असफ़ल, सरल पथ आग जैसा है,
जिसे गलहार समझा था, वही अब नाग जैसा है ।

कलम के शब्द मोती से
ठिकरियों की ठिठोली है
वही तेजस्विनी हुँकार
मरियल श्वान बोली है
समय का फ़ेर भारी मोल लेकर भी नही थमता
निराशा से भरा मन रम्य पथ पर भी नही रमता ।

प्रबल विश्वास बोते हाथ
थर-थर काँप जाते है
तनिक भी इंच भर दूरी
गजों तक नाप जाते है
विधाता ! कुछ करो ऐसा, न अब करना पडे कुछ भी
किसी को दे न पाया कुछ, तो क्यों हरना पडे कुछ भी ।



............................................................  ओमशंकर



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