कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है।
अपने पूत, कपूत हो गये, कैसी दुनिया होती है ।।
परम विभव पर बैठाने का गया सत्य संकल्प कहाँ ?
"देश प्रथम हम पीछे" वाला भाव खो गया कहो कहाँ ?
सुविधा को कोसते हुए, क्यो सुविधा के आगोश हुए ?
सत्य-व्रत की परिभाषा थे मिथ्या के ही कोष हुए ?
कैसा यह संदेश बिलारी सुबह-सुबह क्यॊ रोती है ?
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥
लिये वज्र संकल्प सो गये अपनी भरी जवानी में
बैठ गया आवेश सिमट कर केवल कथा कहानी मे
लाल पडे नासूर अभी भी माँ के शीश भुजाओं पर
हुआ तुषारापात न जाने क्यो आवेश उछाहों पर
आँखों के मोती चुप-चुप माँ निशि-दिन क्षिति में बोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥
अपना-अपना राग न कोई सुनने वाला मिलता है
गाँव गली वीरान न मन अब पहले जैसा खिलता है
सुबक रही असहाय लोक की मर्यादा बेचारी है
कर्मठता बदनाम शान से मुकुट धरे मक्कारी है
अपनों को अपनापन, अपनी माता घुट-घुट रोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥
छीना झपटी लपड-झपड में मर्यादा बेपर्दा है
हया, शर्म, संकोच, शील, सच, संयम गर्दा-गर्दा हैं
सरे आम नीलाम हो रहे दाम लग रहे अस्मत के
छलनी भीतर दूध दुहाये, दोष बेचारी किस्मत के
भारत की संतान अमावस की चादर में सोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥
हमसे अच्छे तोता-मैना सीखा पाठ सुनाते हैं
हम गद्दार शपथ को छिछले सुख के लिये भुनाते हैं
"कथनी करनी एक सदा" उपदेश अभी भी होता है
पर विश्वास विखंडित सूने मे घुट-घुट कर रोता है
इन खारे बूँदों को कैसे कह दें मानस मोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥
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