जब चहुँ ओर बिखर कर मैं ही मै मुझको दिखता है
कर फ़िर कर्म लेखनी ले निज भाग्य स्वयं लिखता है
मन का अँधियारा जलकर जब ज्योतिमान बनता है
सपनों का संसार अनोखे कीर्तिमान जनता है
जब स्वतंत्र परिवेश पराया साथ छोड बढता है
अन्तरिक्ष का कोण-कोण अध्याय नये गढता है
होता स्वत्व स्वतंत्र और तन के बन्धन खुलते हैं
किरण-किरण हंसती सुवर्ण-कण कण-कण मे घुलते हैं
ग्यान गर्व से मुक्त सर्व, स्वागत को कर फ़ैलाता
’मान’ गर्व पर्याय नही सम्मान-पात्र कहलाता
हर मन्दिर आरती सजा मंगल गान करता है
तन भर का ही नही, ताप अन्तरतम का हरता है
भरता है सन्देश सत्य का कानों में युग-कवि के
धरती पुलक रूप दर्शाती है बसन्त की छवि के
अपना स्वत्व विलुप्त एक क्षण को जब भी होता है
अपने को अपनो के हित जब-जब छिति मे बोता है
खिलते शाश्वत सुमन सुरभिमय गन्धवाह बहते हैं
आशा के अध्याय व्यास-गद्दी से कवि कहते हैं
तब इतिहास गर्व से गाथा कहता है पुरुखों की
जन-मन की अभिलाष पूर्ण हो जाती है वर्षों की
रे, मन बिखर उठॊ कण-कण मे, अपनी कारा तोडो
दमक उठे धरती का आँचल युग की धारा मोडो ।
...................................................... ओम शंकर
No comments:
Post a Comment