Sunday, 4 September 2011

बोलो स्वदेश के स्वाभिमान




बोलो स्वदेश के स्वाभिमान

नगराज हिमालय कटा, सिन्धु की धार बँटी, कश्मीर लुटा
कैलास, मानसर, हिंगुलाज तीरथ का पावन तीर बँटा
संगीत आरती का, पूजा की शंख ध्वनि खो गयी कहाँ
माँ ढाकेश्वरी पूछने आती है हमसे हर रोज यहाँ
क्यों हुआ नहीं विक्षुब्द सिन्धु, क्यों मौन अभी तक आसमान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [१]

अँधियारे में भारत भटका, लटकी क्यों तौंक गुलामी की
क्यों स्वाभिमान को भूल हाथ, आदत लग गयी सलामी की
क्यों विश्व गुरु का सिंहासन, आसन बन गया खिलौनों का
मृगराज भूल शार्दूल भाव, क्यों दास हो गया छौनों का
पहले जैसा क्यों रहा नहीं पूरब का सूरज भासमान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [२]

भाषा भावों की तरी, परी कल्पना लोक की ज्योतिमान
क्यों भटक रही पतवार-हीन, टूटे उल्का जैसी निदान
यह विश्वंभरा धरा क्यों ताका करती बैठे शून्य गगन
क्यों दुविधाग्रस्त जवानी है, आचरणहीनता मस्त मगन
उजडे हाटों से लौट-लौट क्यों आते हैं रोते किसान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [३]

क्यों लोकतंत्र का जामा मक्कारों की करनी ढकता है
सच कहने वालों को समाज क्यो समझ रहा "यह बकता है"
क्यों पूरब का भविष्य, पश्चिम के महलों मे तय होता है
पुरुषार्थ विभ्रमित, कुण्ठाएँ नाहक क्यों सिर पर ढोता है
क्यों बदला जाता है सुविधाओं के लिये सदन में संविधान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [४]

शिक्षा जीवन का संस्कार, क्यों हुई पेट की परिभाषा
शिक्षित कहलाता वही, बोलता जो केवल धन की भाषा
परिवार हुए बाजार, स्वार्थ पर पलते हैं रिश्ते-नाते
दौलत के लिये पराए भी अपनों से बढकर हो जाते
क्यों दिया जलाती नही साँझ, तन्द्रा मे रहता क्यों विहान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [५]

क्यों धर्म-कर्म, सेवा-सुधार, पूजा-प्रवचन व्यापार हुए
शंकाओं में सहमे-सहमे, चूल्हे-चौके घर-द्वार हुए
बेशक स्वतंत्र हो गया देश, पर जन-जीवन अब भी गुलाम
प्रतिभा बेचारी भटक रही, करती फ़िरती सबको सलाम
क्यों श्रीमन्तों के कदम छोड जाते गहरे काले निशान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [६]

मुँह फ़ेर रही प्रतिभा हताश क्यों अपने ही घर आँगन से
क्यों रूठ गयी है पुरवाई, अपने मन-भावन सावन से
अब क्यों आदर्शों के चेहरे सीमित रह गए प्रबन्धों में
क्यों सदाचार की परिभाषा सिमटी है सिर्फ़ निबन्धों मे
क्यों राजनीति में उभर रहे हर रोज नए नारे, निजाम।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [७]

भारत भारती खोजता है, कवि खोज रहा ऊँची दुकान
पकवान भले ही सीठा हो पर दुनिया मे बढ रही शान
यह थोथा जीवन, अपनो का आदर्श कभी भी रहा नहीं
बस इसीलिये वह लहरों पर तिर, मुर्दों जैसा बहा नही
क्या उखड बहेगा युग-युग से लहराता भारत का निशान।
बोलो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [८]

यह सब कुछ क्यों हुआ, जब कभी सोंचा अपने चिन्तन से
हम भूल गये अपना स्वरूप, फ़िर छोडा साथ चिरन्तन ने
चेतना हुई बेजार कलेवर की पूजा जब शुरू हुई
दासी का मान बढा इतना, वह सारे घर की गुरू हुई
बस इसीलिये सब उलट-पुलट हो गया विधाता का विधान।
समझो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [९]

भारत कर्ता की जन्मभूमि कर्मठता का यह सामगान
सागर की छाती चीर लिखा करता उस पर अपने निशान
हों पूत कपूत भले युग के, पर कोख धरा की बाँझ नही
अम्बर पर बदली घिरी भले, पर अभी दिवस है साँझ नही
सूरज बरसायेगा रोली अक्षत कह "भारत चिर महान"।
जागो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [१०]

भारत फ़िर से भा रत होगा दुनिया को राह दिखायेगा
धन केवल साधन, साध्य नही, जन-जन को पुनः सिखायेगा
जो भटक रहे अँधियारे मे, जी रहे जुगुनुओं के बल पर
उस बियावान से उन सबको लाना है फ़िर से समतल पर
तब फ़िर से दुनिया गायेगी "भारत महान भारत महान"।
जय हो स्वदेश के स्वाभिमान॥ [११]

............................................. ओमशंकर


Saturday, 23 July 2011

धन्य धीरजी दोस्त धन्य



संसार बडा भोला भाला, फ़िर भी क्यो उससे विरति मुझे
निस्सार नियति के झोंके हैं, है याद नही कुछ सुरति मुझे।


इतिहास एक है सत्य तथ्य, उसका क्यों रूप सुहावन हो
है कर्मों का फ़ल तिक्त तीक्ष्ण, चाहे क्यों मनभावन हो
शैवाल वासना से लिबदी, जल राशि जिन्दगी की मैली
फ़िर भी लकदक परिधान बने पहचान पावनी युग शैली।


क्या सत्य और क्या झूठ मात्र परिभाषा के ताने-बाने
विश्वास-दगा सब काल रूप, कोई माने या मत माने
जीवन में रस भी है शायद, यह भी शंका के घेरे में
है काठ बना चलता फ़िरता, पुतला अनचाहे फ़ेरे में।


क्या करना है किसको कब तक इसका निर्धारण कौन करे
ऋण भरना है अनजानों का, जल्दी निस्तारण करो अरे
है प्रगति ज़िन्दगी की थाती यह भी सुख की कल्पना सुखद
गति की अनुभूति तभी तक है, जब तक क्षण आते नही दुखद।


पर दुख तो जीवन संगी है, विश्वास भरा हमराही है
जीवन है हर समझौते का "आँखों देखता" गवाही है
फ़िर भी उससे मुँह फ़ेर फ़ेर, जाने कितनी राहें बदली
विश्वास दिया अपघात लिया, लकडी सी सूख गयी कदली।


पर धन्य धीरजी दोस्त धन्य, हर मोड, खडे, तत्परता से
काँटे बबूल के फ़िर कम हैं तुम जीत गये नश्वरता से
मैं किन्तु नही हारा फ़िर भी, हारी मेरी कल्पना प्रबल
स्वर क्षीण किन्तु कुछ कहती है, अब भी मेरी साधना सबल।।






................................................................. ओमशंकर त्रिपाठी

Tuesday, 19 July 2011

खो मत धैर्य

हाय ! जग कुछ सोचता पर मर्म जाने कौन मेरा
मैं निराशा का पथिक पर आश का परिवेश मेरा
हृदय में जलती व्यथा के दहकते अंगार मेरे
पर मृदुल शीतल चतुर्दिक दे रहे संभार फ़ेरे।


आह अन्तर में संजोयी राह सूनी सी पडी है
भाव अधसूखे, उधर वह चाह संकोचिन खडी है
स्नेह जलकर भस्म बन नीचे धरातल पर पडा है
अधर पर बरबस मधुर मुस्कान धारण कर खडा है।


मैं किसे पीडा सुनाऊं कौन मेरी सुन सकेगा
कौन सह-अनुभूति का सच्चा ग्रहण-कर्ता बनेगा
कौन सुनकर वेदना, दो अश्रु के कण ढाल देगा
और अपना भी हृदय, पर-वेदना से साल देगा।


पास किसके बैठ अन्तर खोल किसको दिखाऊं
हाथ मे ले कर कलेजे से कहो किसको लगाऊं
छद्मवेशी मैं कहो फ़िर कौन खुलने पर रहेगा
किन्तु ! खो मत धैर्य बहुवेशी तुम्हारा साथ देगा।




.......................................................... ओमशंकर त्रिपाठी

Thursday, 14 July 2011

समय है अब भी चेतो जागो

भावना नियति की आँच न जब सह पाती।
तब अन्तर्पीडा नयनों में छा जाती॥


श्वासों की छलना जब मन को छलती है
ज्वाला धरती से अम्बर तक जलती है
जब सत्य सुधा विषमान त्यक्त होता है
संकेतों से बैखरी व्यक्त होती है
जब हृदय-हृदय की दूरी है बढ जाती
सूखी सरिता की छाती भी फ़ट जाती॥


जब स्वत्व सत्य से आतंकित रहता है
आंचल प्रसूत से ही शंकित रहता है
जब अनुनय की भाषा प्रपंच होती है
परवाह धर्म की जब न रंच होती है
सुख-सुविधायें जब परिपाटी हो जाती
यह दिव्य देह बस माटी भर रह जाती॥


इसी लिये समय है अब भी चेतो जागो
सविता से दीप्त विवेक मुखर हो मांगो
संयम साधना सुकर्म धर्म को जानो
अपनों को अपने से पहले पहचानो
देखो बेसुध माता आँचल फ़ैलाती
माँगो विवेक की आँख वज्र की छाती॥




................................................ ओमशंकर त्रिपाठी

Tuesday, 10 May 2011

सुख की छाँव कहाँ



दुनिया पीडा का प्रवास है सुख की छाँव कहाँ,
महल राजपथ सोना चाँदी अपना गाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

क्षणजीवी बैराग न मन को कभी तनिक भाया
रोम-रोम में समा गयी मृग की कंचन काया
अपना कौन पराये कितने आस - पास बैठे
मन माफ़िक तस्वीर बनाने को मन में ऐंठे
अपने पाँव थके बेसुध हैं, अभी पडाव कहां ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

संयम शील साधना सूनी कुटिया के बन्दी
अपने शिव को ढूंढ रहा अपने मन का नन्दी
अभी समय है चेत उठो उपदेश घनेरे है
कैसे समझूँ समझ सभी मुटठी मे तेरे है
चौपड सजी निहार रहा हूँ, अपना दाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

प्रथा व्यथा बन गयी कथा कैसे खोलूँ अपनी
मुँह में लगी लगाम निगाहे सबकी तनी-तनी
सुनते थे प्रवास का सुख सम्मोहन होता है
रंग बिरंगी दुनिया सुख संजीवन देता है
तपती रेत बूँद को तरसे सीपी, नाव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

अभी सबेरा हुआ नही संझा भी घिर आयी
चार कदम दौडे सपाट में फ़िर गहरी खाई
चमचम गोटे सजे हाथ के, इतने पास नही
फ़िर भी उचक रहा हूँ मरियल मरती आस नही
जेठ तप रहा सिर के ऊपर, बट की छाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

अरे प्राण के मीत न तुमको अब भी भूला हूँ
पता नही क्यों बना हुआ टहनी का झूला हूँ
सन्देहों की घिरी घटाये निष्ठा रूठ गयी
काँधे की पाथेय पुटकिया गिरकर छूट गयी
घना हुआ अँधियार, बनाऊँ अपना ठाँव कहां
अपना गाँव कहाँ ।
सुख की छाँव कहाँ ।।

.......................................................... ओम शंकर त्रिपाठी




Wednesday, 20 April 2011

मै - तुम



मैने गीत व्यथा के गाये, तुमने कथा शौर्य की बाँची,
मेरे मन मे भ्रमर गूंजते, तेरे संग कालिका नाची।

मै अथाह सागर सबकुछ पी लेने का अभ्यास हमारा,

पायस की उफ़नती नदी तुम, काट बहाती कूल किनारा,
मैं बट-छाँव जहाँ खग-मृग के साथ थका मानव सोता है,
तुम भविष्य का दाँव जहाँ संकल्पों को जीवन ढोता है ।

गगन गिरा गंभीर हमारी वाणी, प्राणवान करती है,
भैरव भरी समीर तुम्हारी, पाप जगत का हँस हरती है,
मै अनन्त की दिशा, दशा हो तुम अनादि के रूप राशि की,
भाषा की लक्षणा अभी मैं, तुम नाटक की वृत्ति कैशकी ।

मै संसार, असार तुम, मै विहार और तुम कण्ठहार हो,
नदी पार का तट सुरम्य मैं, तुम तटनी की दुसह धार हो,
तुम हो बीन रागिनी मै हूँ, मै प्रभात तुम कलरव स्वर हो,
अन्तरमन का भाव अमर मै, वाणी का तुम राग मुखर हो ।

मै या तुम अथवा मै - तुम का यह संसार समन्वित फ़ल है,
हुआ आज जो जिस गति-मति से वो जगत का निश्चित कल है,
इसी लिये मै - तुम महत्वमय माने जाते इस प्रपंच मे,
किन्तु न मै समझ सका अपने को, समझ सका न तुम्हे रंच मै ॥



............................................................................... ओम शंकर त्रिपाठी



Saturday, 9 April 2011

ओ तपस्वी



ओ तपस्वी !!
सिन्धु से गम्भीर, हिमनग से अचल उज्ज्वल यशस्वी ।
ओ तपस्वी !!

साधना के दीप शुचिता के धरोहर
कर्म के संगीत शुचि मानस मनोहर
भावधन, विश्वास के विग्रह, जगत के ओ जयस्वी ।
ओ तपस्वी !!

राष्ट्र की प्रेरक कथा, कविता समय की
आर्ष-कुल कि सत्प्रथा शुचिता मलय की
ओ भगीरथ के अदम्य प्रयास जैसे ऊर्जस्वी ।
ओ तपस्वी !!

शक्ति की आराधना सेवा सनातन
भक्ति की उदभावना ममता चिरन्तन
मातृमन्दिर के अखण्डित दीप से ज्योतित जयस्वी ।
ओ तपस्वी !!

सहज-सेवा भावना निष्काम तन मन
पावनी भागीरथी सा दिव्य जीवन
दिव्य देवोपम हिमालय से परम पावन पयस्वी ।
ओ तपस्वी !!

प्रखर प्रतिभा के प्रकीर्ण प्रकाश अनुपम
सत्य की संकल्पना से मूर्त संयम
ओ यती सेवाव्रती, त्यागी, विरागी, ओ मनस्वी ।
ओ तपस्वी !!

...................................................................... ओमशंकर त्रिपाठी



Friday, 8 April 2011

जागो ! जागो भविष्य के कर्णधार



जागो भविष्य के कर्णधार, पन्ने अतीत के करते तेरी आतुर पुकार।
तू खोल नयन उनको निहार, जागो ! जागो भविष्य के कर्णधार ।।

इतिहास ग्लानि मे गलता है, भगवान राम की याद लिये
गीता के पन्ने मौन बने, अन्तरतम में अवसाद लिये
रणभेरी का का दिशिव्यापी स्वर, फ़िर अनायास ही बैठ गया
कृष्णवन्तो विश्वमार्यम का नारा क्यों हमसे रूठ गया
क्यो बनी अनमनी सी फ़िरती, गंगा यमुना की चपल धार
अम्बुधि-अन्तर से आती है, अवसाद भरी धीमी पुकार ।
तू खोल नयन उनको निहार, जागो ! जागो भविष्य के कर्णधार ।।

सन्देह तुम्हे हो रहा आज, अपनी ही कृतियों के ऊपर
निष्क्रिय-कृत्यों के बीच पडे, ढहती सी आशायें लेकर
तुम मौन साधना के साधक, अब मुखरित हो पर व्यर्थ बने
जीवन जालों में उलझे हो, कुन्ठाओं के ही अर्थ बने
देखो फ़िर से असहाय बनी, धरती के अन्तर की पुकार
गीता गायत्री की आँखों से, अविरल ढहती है अश्रुधार ।
तू खोल नयन उनको निहार, जागो ! जागो भविष्य के कर्णधार ।।

उद्वेगजन्य अन्तर लेकर, तुम घूम रहे हो लक्ष्यहीन
माँ अन्नपूर्णा के आँगन में रहकर भी बन रहे दीन
संसार सदा ही याचित था, तेरे सम्मुख ही दान श्रेष्ठ
अब तू ही बना भिखारी है तज कर आदर्श महान श्रेष्ठ
विकृत परम्परायें ले कर, ग्यानी-पिपासु में भ्रम विकार
तज उभय पक्ष के कर्म कलुष, अन्तस में भर ले सदविचार ।
तू खोल नयन उनको निहार, जागो ! जागो भविष्य के कर्णधार ।।

................................................................................. ओमशंकर त्रिपाठी




Thursday, 24 March 2011

मै अमा का दीप हूँ



मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।
चाँदनी मुझको न छेडे आज, कह दो ॥

जानता हूँ अब अंधेरे बढ रहे हैं
क्षितिज पर बादल घनेरे चढ रहे है
आँधियाँ कालिख धरा की ढो रही है
व्याधियाँ हर खेत में दुख बो रही हैं
फ़ूँक दो अरमान की अरथी हमारी
मैं व्यथा का गीत हूँ, जलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।

मानता हूँ डगर यह दुर्गम बहुत है
प्राण का पाथेय चुकता जा रहा है
आँधियाँ मन की जलाशय खोजती हैं
भावना का यान रुकता जा रहा है
सिन्धु से कह दो गगन की आस छोडे
चाँदनी का क्रीत हूँ, गलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।

साधना की सीप मोती को तरसती
कामना मुरझा गयी किलकारियों की
पवन की साँसें अटकती जा रही हैं
याचना सकुचा रही शरमा रही है
नलिन अब दिनमान को चाहे न चाहे
पथिक हूँ, अविराम गति चलता रहूँगा ।
मै अमा का दीप हूँ, जलता रहूँगा ।।

...................................................... ओमशंकर त्रिपाठी




Monday, 14 March 2011

तुम्हारे दिव्य रथ पर



कह गये कब स्नेह से तुम थे विदा लो
खोज लो अन्यत्र अपना वास, जीवन अधखिला है।

कब झटक कर बाँह अरुणायी संजोये
तोड दी डोरी प्रणय की भावनाओं से सँवारी।

तुम गये आश्वस्त करके मीत मेरे
लौटने की लौ लगी ही रह गयी है
स्नेह की शहनाई कुछ गूँजी अधर में
भावना की टेक टूटी कह गयी है ।

जब विदा ही माँगने मुझसे चले थे
उस बेचारे के लिये भी सोंच लेते
स्वयं की बोई हुई लोनी लता को
उस बिदाई के समय ही नोंच लेते।

हो चुकी होती तभी निश्चिंत मै भी
शुष्क हो कर्तव्य के इस अग्नि पथ पर
झिलमिला कर जल प्रकाशित कर जगत को
आ मिली होती तुम्हारे दिव्य रथ पर।



................................................... ओमशंकर



Thursday, 10 March 2011

राष्ट्र मंदिर का पुजारी


राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।

त्याग का पाथेय अक्षय पास मेरे
क्रूर कंटक दलन का उत्साह प्रेरे
विश्वविजयी भावना से मै भरा हूं
मै न अल्हड बाल या जर्जर जरा हूँ
हूँ पथिक अविराम, क्षण भर भी सुखद विश्राम का कामी नही हूँ ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

पंथ दुर्गम है कठिन भी जानता हूँ
विघ्न-बाधायें बहुत है मानता हूँ
लक्ष्य का उन्नत शिखर अति दूर दुस्तर
फ़िसलता चमचम चिलकता पंथ प्रस्तर
सततता का मैं अथक अभ्यास, कुंठित हार का हामी नही हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

साधना का दीप हरदम ही जला है
भावना-संगीत अंतर मे पला है
रूठकर सुविधा सलोनी जा चुकी है
वह विराग बयार भी मुरझा चुकी है
लक्ष्य अच्युत अभय संधान, यश का किन्तु अनुगामी नहीं हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

मै चला हूँ और चलता ही रहूँगा
अंधतम में ज्योति बन जलता रहूँगा
मोह के बादल भले घिर घोर छाये
द्रोह की काली घटाय्रं रीत जायें
सूर्य की पहली किरण का गीत मैं, अँधियार का हामी नही हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।

हो निराशा की भले घर-घर कहानी
झूम झंझायें उठे खोये निशानी
जान्हवी पथ सिंधु का भ्रम भूल जाये
अंधतम रवि को भले ही लील जाये
शुध्द शोणित का उमडता ज्वार हँ, पानी नही हूँ।
राष्ट्र मंदिर का पुजारी, मुक्ति का कामी नही हूँ ।।




Sunday, 6 March 2011

कठिन समय


कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है।
अपने पूत, कपूत हो गये, कैसी दुनिया होती है ।।

परम विभव पर बैठाने का गया सत्य संकल्प कहाँ ?
"देश प्रथम हम पीछे" वाला भाव खो गया कहो कहाँ ?
सुविधा को कोसते हुए, क्यो सुविधा के आगोश हुए ?
सत्य-व्रत की परिभाषा थे मिथ्या के ही कोष हुए ?
कैसा यह संदेश बिलारी सुबह-सुबह क्यॊ रोती है ?
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

लिये वज्र संकल्प सो गये अपनी भरी जवानी में
बैठ गया आवेश सिमट कर केवल कथा कहानी मे
लाल पडे नासूर अभी भी माँ के शीश भुजाओं पर
हुआ तुषारापात न जाने क्यो आवेश उछाहों पर
आँखों के मोती चुप-चुप माँ निशि-दिन क्षिति में बोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

अपना-अपना राग न कोई सुनने वाला मिलता है
गाँव गली वीरान न मन अब पहले जैसा खिलता है
सुबक रही असहाय लोक की मर्यादा बेचारी है
कर्मठता बदनाम शान से मुकुट धरे मक्कारी है
अपनों को अपनापन, अपनी माता घुट-घुट रोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

छीना झपटी लपड-झपड में मर्यादा बेपर्दा है
हया, शर्म, संकोच, शील, सच, संयम गर्दा-गर्दा हैं
सरे आम नीलाम हो रहे दाम लग रहे अस्मत के
छलनी भीतर दूध दुहाये, दोष बेचारी किस्मत के
भारत की संतान अमावस की चादर में सोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥

हमसे अच्छे तोता-मैना सीखा पाठ सुनाते हैं
हम गद्दार शपथ को छिछले सुख के लिये भुनाते हैं
"कथनी करनी एक सदा" उपदेश अभी भी होता है
पर विश्वास विखंडित सूने मे घुट-घुट कर रोता है
इन खारे बूँदों को कैसे कह दें मानस मोती है।
कठिन समय का फ़ेर पड गया, भारत माता रोती है ॥




Wednesday, 2 March 2011

अपनी परिभाषा क्या


कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या
अरमानों की अरथी सिर पर अपनी आशा क्या ।

मै मन की वह आग जिसे कोई न बुझाता है
दुनिया का बैराग कथित जो सबको आता है
सर्जन का अंकुर बढने से जो घबराता है
राग किसी का अपने सुर में खूब सुनाता है
मन है भरी बजार अकेली ही अभिलाषा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

एक मिला था छोटा नन्हा सा घर रहने को
और एक चेतन था उसमे उससे कहने को
भूल भटक कर घर का ही विस्तार किया मैने
माटी का माटी से रुच श्रंगार किया मैने
मरी हुई माटी से अब उगने की आशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

दिन को रात, रात को दिन करते बीती काया
भरी दुपहरी को सूरज से भी काली छाया
यह दुनिया का सच था अथवा यह ही माया
जिसने इस मनमाने पन से अब तक भरमाया
भटके हुए पथिक को आशा और निराशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

बियावान वन और अंधेरा होगा बडा घना
चारो ओर अपरिचित सांसों का विस्तार तना
दुनिया संभ्रम और विवशता का मंजर होगा
अपने को चुभता सा अपना ही खंजर होगा
ऐसे मे बैराग या कि फ़िर राग पिपासा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

तन-मन का रहस्य बैरागी जिग्यासा चुप है
किसके लिये कौन क्या बाँधे अंधियारा घुप है
जो होना है हो ले कर ले जो जिसको करना
अपने को जो भी करना या जो भी कुछ भरना
उसके लिये कौन चिन्ता अब और दुराशा क्या ।
कर्म पंथ का पथिक अरे अपनी परिभाषा क्या ॥

.............................................................. ओमशंकर




मुझको जलना ही कबूल है


मेरा जीवन नन्दन वन है या पतझड का बबूल है,
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है।

तुम बौराये आम्रकुँज मधुकर की वीणा नियति तुम्हारी
मै अँकुर हूँ स्वाभिमान का, चुभ जाना ही प्रकृति हमारी
यह मुरझाई पडी जिन्दगी तब कराह के क्षण जीती है
जब बासन्ती पवन तुम्हारा गन्ध भार हँस कर ढोती है
चैल हीन जीवन की फ़लश्रुति फ़िर कैसा मेरा दुकूल है।
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है॥

तुम समीर मैं धूल धरा की रौंद न जाओ तनिक रुको तो
आकाशी चोटी पर हूँगा कसम तुम्हारी तनिक झुको तो
मलय गगन की राह लग गयी सूना आँचल मुझे पुकारे
मैं अंकुर की गोद थकन की नीद तुम्हारे नेह सहारे
कोई किसी का दर्द दुलारे कोई माने उसे भूल है।
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है॥

तुम समर्थ निरपेक्ष विश्व हो मै संसार असार विखण्डित
तुम अथाह जलराशि महातम मै विवर्त केवल प्रतिबिम्बित
तुम अनन्त तो मैं बसन्त हूँ, तुम चन्दन मै सुरभि तुम्हारी
तुम कजरारे मेघ, तुम्हारे आँचल मे जल राशि हमारी
कोई तुम्हे शिखर में देखे कोई कहता तुम्हे मूल है।
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है॥

मेरा जीवन नन्दन वन है या पतझड का बबूल है,
तुमको मलय समीर मुबारक, मुझको जलना ही कबूल है।



................................................................... ओमशंकर



क्यों हरना पडॆ कुछ भी


प्रबल विश्वास बोना है
युगों तक साँस ढोना है
जिसे जैसा बने कर ले
हमे परिहास ढोना है
हमारे हर कदम असफ़ल, सरल पथ आग जैसा है,
जिसे गलहार समझा था, वही अब नाग जैसा है ।

कलम के शब्द मोती से
ठिकरियों की ठिठोली है
वही तेजस्विनी हुँकार
मरियल श्वान बोली है
समय का फ़ेर भारी मोल लेकर भी नही थमता
निराशा से भरा मन रम्य पथ पर भी नही रमता ।

प्रबल विश्वास बोते हाथ
थर-थर काँप जाते है
तनिक भी इंच भर दूरी
गजों तक नाप जाते है
विधाता ! कुछ करो ऐसा, न अब करना पडे कुछ भी
किसी को दे न पाया कुछ, तो क्यों हरना पडे कुछ भी ।



............................................................  ओमशंकर



अपनी कारा तोडो


जब चहुँ ओर बिखर कर मैं ही मै मुझको दिखता है
कर फ़िर कर्म लेखनी ले निज भाग्य स्वयं लिखता है

मन का अँधियारा जलकर जब ज्योतिमान बनता है
सपनों का संसार अनोखे कीर्तिमान जनता है

जब स्वतंत्र परिवेश पराया साथ छोड बढता है
अन्तरिक्ष का कोण-कोण अध्याय नये गढता है

होता स्वत्व स्वतंत्र और तन के बन्धन खुलते हैं
किरण-किरण हंसती सुवर्ण-कण कण-कण मे घुलते हैं

ग्यान गर्व से मुक्त सर्व, स्वागत को कर फ़ैलाता
’मान’ गर्व पर्याय नही सम्मान-पात्र कहलाता

हर मन्दिर आरती सजा मंगल गान करता है
तन भर का ही नही, ताप अन्तरतम का हरता है

भरता है सन्देश सत्य का कानों में युग-कवि के
धरती पुलक रूप दर्शाती है बसन्त की छवि के

अपना स्वत्व विलुप्त एक क्षण को जब भी होता है
अपने को अपनो के हित जब-जब छिति मे बोता है

खिलते शाश्वत सुमन सुरभिमय गन्धवाह बहते हैं
आशा के अध्याय व्यास-गद्दी से कवि कहते हैं

तब इतिहास गर्व से गाथा कहता है पुरुखों की
जन-मन की अभिलाष पूर्ण हो जाती है वर्षों की

रे, मन बिखर उठॊ कण-कण मे, अपनी कारा तोडो
दमक उठे धरती का आँचल युग की धारा मोडो ।



...................................................... ओम शंकर



राही अभी नही.............



थकी चाह इस बीच राह में ?
राही अभी नही................
पकड देख पाथेय, अरे, बस मंजिल यहीं कही
राही अभी नही................

सरिता, सर, दुर्गम गिरि, गहर कितने पार किये
अमर बूँद की आशा में अनगिन विष घूँट पिये
माना कठीन कुराह सिरे से सिर चढ कर आयी
कई चमकते शिखर खोद कर छोड गयी खाई
तो भी कहीं विराम बीच में राही, नही - नही
राही अभी नही................

माथे चढी शपथ चलने की अन्तर में ज्वाला
तलुओं पर चिरचिटे मढ गया आँखों पर जाला
फ़िर भी मन हिम्मतवाला, पर "अपने" दूर खडे
आकर गुँथे नागफ़नियों से काँटे बडे - बडे
होकर लहूलुहान चकित सा तबसे खडा यहीं
राही अभी नही................

धीरज दिया सदा ही तुमने और बढाया भी
पीछे रह उँचे शिखरों तक मुझे चढाया भी
फ़िर भी लिपटी ध्वजा हाथ की नही लहर पाई
ऊपर नीचे देख हो गया मन काई - काई
कैसे बनूँ निशान समय का दुनियाँ दूर नही
राही अभी नही................



............................................ ओम शंकर



मुक्तक



कविता कर्म है अधिकार नही
कविता धर्म है व्यापार नही
कविता तत्व है सम्भार नही
कविता स्वत्व है संसार नही

................................ ओमशंकर